10 जनवरी की डायरी से

यहां सब लोग मशहूर होने के फिराक़ में पड़े हैं. लोग एकबारगी में बूस्ट होना चाह रहे हैं. लेकिन मैं कहूंगा कि इस संघर्ष को मजे से बिताइये. मशहूर होने के बाद जब आप ऊंचाइयों से नीचे की तरह देखेंगे तो उसकी खूबसूरत छटा के आगे सब कुछ बेमानी लगेगा. जिंदगी का हरेक वक़्त ये सोचकर गुजारिये या जी लीजिये कि जहां आप हो वहां पहुंचना भी बहुत लोगों का सपना होता है. अच्छी बातें, अच्छी सोच, अच्छा व्यक्तित्व खुद के लिए सहुलियत भरा होने के साथ ही दूसरों के जीवन में भी अहम बदलाव ला सकता है. ये अवधारणा पूरी तरह से गलत है कि मशहूर लोग अच्छे ही होते हैं और मौजूदा मुकाम पर कठिन संघर्ष कर पहुंचते हैं. मशहूर होना और बर्ताव-व्यवहार में अच्छा होना मुमकिन है कि एक दूसरे के पूरक हो लेकिन ये सभी जगहों पर कदापि लागू नहीं हो सकता.

दुनिया में सबसे ज़्यादा मशहूर तो पाॅर्नस्टार महिलायें और पुरुष हैं. इसलिए मशहूर होने का पैमाना अच्छाई पर कभी भी निर्भर होता है कहना ठीक नहीं. मैं ये भी नहीं कह रहा कि पाॅर्न शूट कराने वाली महिलाएं अच्छी नहीं होती. हो सकता है कि वो अपने स्वभाव में बेहद खूबसूरत हो. ये तो वस्तु और व्यक्ति के नजरिये पर निर्भर करता है कि उसे कौन खूबसूरत और कितना जहीन दिखाई दे रहा है. कुल मिलाकर कहने का बस इतना सार है कि लोकप्रियता के पीछे मत भागिये बल्कि अपने कौशल और व्यक्तित्व को निखारने की कोशिश जुहाहिये. लोगों को ज्ञान देने से ज्यादा खुद के ज्ञानार्जन पर विचार कीजिये.
शुभरात्रि

सर्दी-कोरोना-पुलिस-प्रशासन-सरकार-मीडिया बनाम किसान?

आंदोलन कर रहे किसानों के साथ कौन सी बर्बरता नहीं की गई, किसानों पर पुलिस-प्रशासन-सरकार ने जुल्मो-सितम की सारी इंतेहा पार कर दी. जिस देश में पिछले तीन दशकों में लाखों किसानों ने सुसाइड कर लिया हो, उसी देश में किसानों पर अत्याचार करने के सभी तरीके आजमाये गए. पिछले साल इसी नवंबर में जब किसानों ने दिल्ली जाने का मन बनाया तो उनकी पुलिस से हिंसक झड़पें हुईं. दिल्ली बॉर्डर की ओर बढ़ने से रोकने के लिए उनके ऊपर वॉटर कैनन और आंसू गैस छोड़े गए. एक महीने बाद जब किसानों ने भारत बंद का एलान किया तो किसानों को आतंकी कहा गया, 26 जनवरी को ट्रैक्टर रैली कर रहे किसानों के बीच एक ऐसे उग्र व्यक्ति को साजिशन भेज दिया गया, जिसने लाल किले पर धार्मिक झंडा फहराया और फिर आंदोलन को मीडिया के जरिए बदनाम करने की कोशिशों ने और तूल पकड़ लिया.

किसानों को सिंगर रिहाना, क्लाइमेट एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग का समर्थन मिला. तो वहीं भारत की दिशा रवि को पुलिस ने टूलकिट मामले में गिरफ्तार कर आंदोलन को रोकने की कोशिशों को जारी रखा. मीडिया में टूलकिट के मायनों को अलग अर्थों में समझाया जाने लगा. टूलकिट का अर्थ बस इतना ही है कि कोई किसी काम में किन रणनीतियों का सहारा ले रहा है. अगर किसान आंदोलन के समर्थन में कोई रणनीति बनाई गई तो इसमें गलत क्या था? भला हो दिल्ली हाईकोर्ट का जिसने दिशा रवि को जमानत देकर रिहा कर दिया. किसानों पर कोरोना फैलाने का आरोप भी लगा. करनाल पुलिस ने तो किसानों पर लाठीचार्ज तक किया. लखीमपुर खीरी में बीजेपी नेता का मन इससे भी नहीं भरा, तो उन्होंने किसानों पर अपनी थार चढ़ा दी.

करीब 800 आंदोलनरत किसानों की जान चली गई, महामारी आई, सर्दी आई फिर भी सरकार का मन नहीं पसीजा. भला हो चुनाव का, जिसमें नुकसान का अंदेशा लगाकर सरकार ने कानून वापस ले लिया.जिस कानून को सरकार किसानों को समझाने में आज खुद को असमर्थ समझ रही है. उस कानून को लागू करने के लिए सरकार ने इतना खून खराबा क्यों किया, शायद ये एक अनुत्तरित सवाल ही बनकर रह जाएगा.

पोलेक्जिट का डर?- पोलैंड के संविधान और ‘ईयू लॉ’ के बीच टकराव

पोलैंड की संवैधानिक कोर्ट ने यूरोपियन यूनियन के कुछ नियमों को अपने देश के संविधान के खिलाफ माना है. कोर्ट के इस फैसले के बाद यूरोपीय देशों का संगठन यूरोपियन यूनियन मुश्किल में फंस गया है. वारसॉ कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ईयू के साथ पोलैंड के समझौते को अपने संविधान के खिलाफ माना. जजों ने ये भी साफ किया कि ईयू को इस पर मंथन करने की जरूरत है ना कि पोलैंड की ईयू में सदस्यता बर्खास्त करने की. पोलैंड अपने संवैधानिक मर्यादा के साथ समझौता करने वाला नहीं है.

वारसॉ कोर्ट की इस तल्ख टिप्पणी के बाद ईयू की प्रेसिडेंट उरसुला वॉन डेर लेयेन ने कहा कि हम पोलैंड के संविधान का सम्मान करते हैं और इस पर विचार विमर्श करने के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचेंगे. ईयू, पोलैंड के नागरिक अधिकारों का हर हाल में रक्षा करेगी.

वहीं, पोलैंड में बड़ी संख्या में लोग ईयू के लॉ से अपने देश के संविधान के टकराव के बारे में सुनने के बाद सड़कों पर हैं. तो कुछ लोग ईयू से अलग होने के डर से ईयू के समर्थन में रैली कर रहे हैं. कई विशेषज्ञों का मानना है कि कहीं पोलैंड भी ब्रिटेन की तरह ही ईयू से अलग होने का निर्णय ना ले ले. अब देखना होगा कि ईयू और पोलैंड के बीच सहमति होती है या फिर ये टकराव से पोलेक्जिट? को जन्म देता है.

युवा-संभावना: फुटबॉल की दुनिया में आते ही तूफान लाने वाला स्पेनिश खिलाड़ी ‘गावी’

अपने डेब्यू मैच में ही नेशन्स लीग के फाइनल में पहुंचने वाले स्पेन के फुटबॉल खिलाड़ी गावी आजकल सुर्खियों में छाये हैं. गावी सिर्फ 17 साल के हैं और अपनी टीम में सबसे कम उम्र के खिलाड़ी हैं. नेशनल लीग के मैचों में बिताये अपने 62 दिनों में ही गवी शून्य से शिखर पर पहुंचे हैं. गावी का पूरा नाम पाब्लो मार्टिन पेज़ गेविरा है. वे बार्सिलोना, स्पेन के लिए खेलते हैं.

गावी को लेकर उनके कोच लुईस इनरीक का कहना है कि, गवी के पास फुटबॉल में नये कीर्तिमान बनाने के लिए अभी भरपूर समय है. वो टीम में मिडफिल्डर की भूमिका को पूरी जिम्मेदारी से निभा रहे हैं. उनमें तकनीकी तौर पर दूसरे फिल्डर्स को मदद देने का बेहतर कौशल है.

गावी ने सिर्फ 11 साल की उम्र में अंडर 16 मैचों में बार्सिलोना फुटबॉल क्लब के लिए खेलना शुरू किया था. गावी को लेकर उनके कोच का भरोसा कहता है कि युवा-संभावनाओं की दहलीज चढ़ने और शानदार सफलता पाने तक का सफर तय करने से वो नहीं चूकने वाले. लेकिन देखना दिलचस्प ये होगा कि उनकी कामयाबियों के मानक कितना फैलाव पाने वाले होंगे.

अमेरिका या रूस करता है तालिबान को हथियार सप्लाई?

आपने कभी सोचा है कि इस्लामिक आतंकी समूह तालिबान के पास इतने हथियार कहाँ से आते हैं? जवाब सुनकर आप हैरान रह जाएंगे. जी हाँ, अमेरिका, तालिबान को हथियार देता है!

राॅबर्ट क्रूज़ जोकि स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में बतौर एक्सपर्ट कार्यरत हैं. उन्होंने वाशिंगटन पोस्ट के एक इंटरव्यू में इसका खुलासा किया. उन्होंने तालिबान को हथियार कहाँ से मिलते हैं? के जवाब में कहा कि तालिबानी, अमेरिका के सहयोग से मिले अफगानिस्तान के सैनिकों और पुलिस अधिकारियों के हथियारों को छीन लेते हैं.

सेना के कुछ कर्नल और पुलिस अधिकारियों की तालिबान से मिलीभगत है. वो भी तालिबान को अमेरिका से मिले हथियार सौंप देते हैं और इसी मिलीभगत का नतीजा है कि आज तालिबान के एक लाख से भी कम आतंकी अफगानिस्तान के चार गुना सैनिकों पर भारी पड़ गये.

अमेरिका के अलावा भी कुछ देश और आतंकी समूह तालीबान को हथियार देते हैं. 2018 में अमेरिका ने रूस पर तालिबान को हथियार सप्लाई करने का आरोप लगाया था. बीबीसी के एक इंटरव्यू में तत्कालीन जनरल जाॅन निकोलसन ने ये दावा किया था कि रूस तालिबान को लड़ाकू हथियार देता है. जो ताजिकिस्तान के रास्ते आतंकियों तक स्मगलिंग के जरिये पहुंचता है. लेकिन अमेरिका के जनरल के इस दावे में कोई ठोस सबूत ना होने की दशा में रूस ने इसे खारिज़ कर दिया था.

ओलंपिक में कम मेडल के लिए कौन जिम्मेदार?


भारत की झोली में ओलंपिक से कम मेडल गिरने पर खिलाड़ियों पर सवाल उठाना बंद कीजिये. भारत में प्रतिभाओं की लेशमात्र भी कमी नहीं है. कमी है तो साइंटिफिक ट्रेनिंग की. भारत में ओलंपिक के लिए भेजे जा रहे एथलीटों के चयन प्रक्रिया पर सवाल उठाइये. आप जिस शहर से आते हैं, वहां के खस्ताहाल स्टेडियम का जायजा लीजिए. सोचिये, कि राज्य के खेल मंत्रियों ने प्रतिस्पर्धा की बुनियाद बनाने में कहाँ पर चूक कर दी.

ओलंपिक खिलाड़ियों के लिए भारत सरकार कितने पैसे खर्च करती है, उसका भी ब्योरा निकाल लीजिए. मैं जानता हूँ इस पोस्ट को पढ़ रहे बहुतेरे लोग मुझे निगेटिव घोषित करने आएंगे कि देखो चानू ने मेडल जीता और ये मोदी सरकार को कोसने लगा. इसे भारत की खुशहाली देखी नहीं जाती. लेकिन मैं कहूंगा कि नकारात्मक और घटिया सोच तुम लोगों की है.

टोक्यो ओलंपिक में ना जाने कितनी चानू, मैरीकाम, सिंधु भेजी जा सकती थीं. जिसके लिए हमने कोई योजनाबद्ध काम नहीं किया. खिलाड़ी आर्थिक तंगी झेलते रहे, संघर्ष से जूझते रहे. बिना रणनीति और कुशल प्रशिक्षण के अगर कुछ एथलीट मेडल ले आ रहे हैं तो ये सौभाग्य की बात है. ये तो और अच्छी बात होती ना जब ओलंपिक के लिए भारत के कोने कोने से खिलाड़ियों की तलाश की जाती. जिस दिन भारत में स्टेडियम सुधर जायेंगे. हर राज्य में एक गोल्ड मेडल लाने वाले सूरमा ओलंपिक में भारत का सिर गर्व से ऊंचा कर देंगे.

ओलंपिक खेलों में दर्शकों से जुड़े दिलचस्प किस्से!

अब तक के सभी ओलंपिक खेलों में दर्शकों की भीड़ और उसमें अपने देश की टीमों के लिए उत्साह आकर्षण का केंद्र बनता रहा है. टोक्यो ओलंपिक में इस साल बिना दर्शकों के खेलों का आयोजन होने जा रहा है, तो वहीं ओलंपिक में वेन्यू के भीतर दर्शकों के आने के महत्व और उससे जुड़े दिलचस्प किस्सों के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ जाती है. 1932 में लॉस एंजेलिस में हजारों की तादाद में दर्शकों की उपस्थिति ऐतिहासिक थी.

20वीं सदी के इस ओलंपिक के आयोजन को दो विश्व युद्धों के बीच करना अंतरराष्ट्रीय सौहार्द की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जाता है. 1936 में ओलंपिक की ओपनिंग सेरेमनी को जर्मनी के नाजी नेता एडॉल्फ हिटलर की कोशिशों के बाद बर्लिन में आयोजित किया गया. जिसमें जर्मनी ने जीत हासिल की. शुरू में हिटलर ने ओलंपिक में यहूदियों को शामिल होने का पुरजोर विरोध किया लेकिन बाद में जब ओलंपिक समिति का दबाव बना और ओलंपिक बहिष्कार की धमकियां आने लगी तो फिर यहूदी दर्शकों और खिलाड़ियों को ओलंपिक से हटाने की हिटलर की मंशा चकनाचूर हो गई.

द्वितीय विश्व युद्ध की वजह से 1940 और 1944 में होने वाले ओलंपिक खेलों का आयोजन नहीं हो सका. द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ओलंपिक खेलों का आयोजन 1948 में एक बार फिर से शुरू हुआ. इस बार ओलंपिक का आयोजन लंदन के वेंबली स्टेडियम में किया गया. 1960 का रोम ओलंपिक 18 साल के धाकड़ युवा मुहम्मद अली की बॉक्सिंग में ऐतिहासिक जीत का गवाह बना. टोक्यो में पहली बार ओलंपिक का आयोजन 1964 में किया गया. 1964 टोक्यो ओलंपिक एशिया का भी पहला ओलंपिक था. वहीं, 1996 में अटलांटा ओलंपिक भी दर्शकों के नाते चर्चा में बना रहा, क्योंकि उस साल बहुतेरे दर्शक स्टेडियम के भीतर जाने का टिकट नहीं हासिल कर पाए, अटलांटा में एक सांस्कृतिक उत्सव होने के चलते दर्शकों को स्टेडियम की बजाय बड़ी स्क्रीन पर ही ओलंपिक खेलों का लुत्फ उठाने का मौका मिल सका.

दुर्भाग्य से 27 जुलाई के दिन ओलंपिक खेलों के दौरान ही अटलांटा में आतंकी हमला हो गया. जिसमें एक व्यक्ति की मौत और सैंकड़ों लोगों के जख्मी होने की बुरी खबर आने के बाद अंतरराष्ट्रीय दर्शकों की तादाद में काफी कमी देखी गई. इससे पहले भी 1972 म्यूनिख ओलंपिक में आतंकी हमला हुआ था. इस सबके मद्देनजर जब साल 2000 में सिडनी ओलंपिक का शुभारंभ हुआ तो दर्शकों की सुरक्षा का खास खयाल रखा गया और सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद रखा गया.

2012 का लंदन ओलंपिक और 2016 का रियो डी जेनेरियो ओलंपिक, नेशनल कास्ट्यूम पहने दर्शकों और प्रतिभागी देशों के अलग-अलग पताकाओं से सजा धजा दिखाई दे रहा था.

2020 में टोक्यो ओलंपिक होने ही वाला था कि वैश्विक महामारी कोरोना से इसे टालना पड़ गया, और अब जब एक साल बाद इसके आयोजन पर सहमति बनी तो टोक्यो में इमरजेंसी लगाने की नौबत आ गई. आयोजन समिति से बात करने के बाद खुद जापान के मौजूदा प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा ने पहली बार बिना दर्शकों के ओलंपिक का आयोजन करने का मन बनाया.

राम नाम की लूट है!

राम मंदिर तीर्थ क्षेत्र की जो जमीन 2 करोड़ की थी, उसे 18 करोड़ में खरीदा गया. भक्त इससे बड़ा सम्मान क्या देते राम को? अब राम मंदिर के नाम के साथ लोग घोटाला शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं.

पहले राम के नाम पर सत्ता हथिया लो, फिर लोगों की आस्था के नाम पर करोड़ों का चंदा लेकर खा जाओ. बात 16 करोड़ रुपये की नहीं है; ये भरोसे की बात है. जो लोगों ने किया था. चंदे की पर्ची काटने वालों पर.

राम मंदिर के लिए लोगों से चंदा लिया नहीं गया, मनमाने तरीके से वसूला गया है. चंदे के लिए भी एक खाता बना देते. घर घर जाकर वसूली करना ही न्यायसम्मत नहीं था. जिसकी जो श्रद्धा बन पड़ती, स्वेच्छा से कर देता.

Continue reading “राम नाम की लूट है!”

47वें G-7 शिखर सम्मेलन पर मेरी प्रतिक्रिया

दुनिया की आधी दौलत G-7 के 7 सदस्य देशों के पास है, बाकी 188 देशों के पास आधी दौलत. आर्थिक विषमता के यही अगुवा देश दुनिया के हित का नाम लेकर ब्रिटेन के कार्नवाल काउंटी में इकट्ठा हुए हैं.

G-7 के सदस्य देश दुनिया की आधी दौलत हड़प कर बैठे हैं; वहीं आधी दुनिया भूखमरी, अशिक्षा, निम्न जीवन स्तर और गरीबी झेल रही है. ये कैसी अमीरी है जो किसी असहाय के काम ना आ सके?

कलाम के राष्ट्रपति रहते हुए G-7 ने मिशन इक्विटी के लिए भारत को फंड देने की बात कही थी, जबसे मोदी पीएम बनें; विकसित देशों के बराबर ऊर्जा उत्पादन करने के क्षेत्र में एक पैसे का काम नहीं हुआ!

भारतीय राजनीति का ‘भक्ति’काल


(2014 से लगातार…)
भाग-1

जब साहित्य में भक्तिकाल की बात होती है तो कृष्णमार्गी भक्त सूरदास, राममार्गी तुलसी, ज्ञानमार्गी कबीर और सगुण निर्गुण भक्ति शाखा के बहुत सारे कवियों का नाम लिया जाता है, भक्ति का सामान्य भाव ईश्वर से अन्यतम आस्था का परिचायक है! लेकिन आधुनिक समय में भक्ति और भक्त का सामाजिक और राजनीतिक अर्थ बदल चुका है. अब आमतौर पर तथ्यों को ठेंगा दिखाने वाले सांप्रदायिक समर्थकों को भारत में भक्त कहा जाने लगा. ज्यादातर प्रधानमंत्री मोदी की तरफदारी करने वाले लोगों को ये संज्ञा दी जा रही है. क्योंकि कुछ भारतीय नागरिक के जीवन का लक्ष्य बस एक ही है और वो है प्रधानमंत्री मोदी के बचाव में सोशल साइट्स से लेकर, समाज में किसी पद पर भी रहते हुए उनके विरोधियों को गालियां देना, उनसे लड़ना और बहुत कुछ.

ऐसे लोग आपको हर जगह मिल जाएंगे. वो सेंट्रल कैबिनेट में तो हैं ही, न्यायालय में भी हैं. सचिवालय से लेकर मीडिया संस्थान भी भक्तों से पटे पड़े हैं. आपको भारत के हर संस्थान में भक्त मिल जाएंगे. कुछ तो मोदीजी के इतने जबरा फैन हैं कि उनकी उलूल जुलूल बातों को भी समर्थन देने से नहीं कतराते, प्रबुद्ध वर्ग उन्हें अंधभक्त का दर्जा देते हैं.

इस देश का दुर्भाग्य ही है कि तर्कहीन बातों को सही साबित करने में मीडिया संस्थान भी अपनी महती भूमिका निभाने से नहीं कतराते. जिनका जिम्मा लोगों को जागरूक करने का है, वे ही लोगों को भक्त बनाने पर तुल गये हैं. अब आप समझना शुरू कर दीजिए कि मैं दूसरे प्रकार के भक्तों की ही बात कर रहा हूं.

राजनीति में भक्तिकाल का पदार्पण साल 2014 में हुआ. सौभाग्य से उसी साल नरेंद्र मोदी भारतवर्ष के प्रधानमंत्री चुने गए. भारतीय जनता पार्टी और संघ का ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है?’वो जगजाहिर है. लेकिन बीजेपी का भक्तों से क्या रिश्ता है, वो मैं आपको बताता हूं.

एक दौर था जब भारत ने तर्कसम्मत बातों से दुनिया का दिल जीता था. दुनिया भर में भारतीय मूल के लोगों ने अध्यात्म, योग, चिकित्सा, विमर्श और न्याय के क्षेत्र में बड़ी बातें की थीं. 2014 आम चुनाव से ही भक्तों ने उस भरोसे का बेड़ा गर्क कर दिया. बताइए ये तो भक्ति की पराकाष्ठा ही है ना कि महादेव की नगरी काशी में हर हर महादेव की जगह हर हर मोदी के नारे लगे! गंगा सफाई अभियान के झूठे दावे को सच मान लिया गया. देश की सत्ता हमें धर्म के नाम पर लड़ा रही थी, और भक्त उसे सनातन का आंदोलन समझ बैठे. लोगों की बुद्धि इस तरह कुंध गई कि नरेंद्र मोदी को अवतारी मान लिया.

क्या कभी महादेव को मोदी से रिप्लेस किया जा सकता है. जिस सांप्रदायिक सौहार्द को चार सौ सालों में अंग्रेज़ी हुकूमत नहीं मिटा पाई, उसे भक्तों की करतूतों ने जीर्ण शीर्ण कर दिया. 2014 के चुनाव प्रचारों में जुटे मोदीजी ने चिल्ला चिल्लाकर कहा कि कांग्रेस ने 2G स्पेक्ट्रम को प्राइवेट कंपनियों को सस्ते दामों में बेचकर बहुत बड़ा घोटाला किया? सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में पता चला कि ये एक डील ही थी. जिस कांग्रेस ने देश को सिर्फ लूटने का काम किया उसी के मार्स आर्बिटर मिशन का क्रेडिट लेने और अपने भक्तों के सामने महामानव बनने की इच्छा से फोटो सेशन करवाया.

2015 में डीडीसीए में बड़ा घोटाला सामने आया और अरुण जेटली के कार्यकाल में बड़े वित्तीय घोटाले की खबरें सामने आई! और ये बात सीबीआई की जांच में सामने आई. इस पर ना तो पीएम मोदी ने कुछ कहा और ना ही उनके भक्तों की प्रतिक्रिया आई. बल्कि जिस किसी ने भी फेसबुक ट्विटर पर जेटली के भ्रष्टाचार का खुलासा किया भक्त उसे गलियाते रहे.

भक्तों को लगा कि मोदी के पीएम बनने से देश में बड़ा बदलाव होगा. लेकिन इनके कार्यकाल में हिंदुत्व के मुद्दों के अलावा किसी विषय पर कोई जोर नहीं दिया गया. दो आर्थिक सुधारों नोटबंदी और जीएसटी के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार रसातल में दबती चली गई. औद्योगीकरण से पर्यावरण को बचाने के लिए जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं हुआ. प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़ को रोकने के लिए मोदी सरकार ने कोई रणनीति तैयार नहीं की, बांधों का मरम्मत नहीं करवाया. ग्रीन हाऊस गैसों के निपटारे के लिए भी भक्तों के महामानव मोदी जी ने कुछ नहीं किया!

क्रमशः…..

%d bloggers like this: