शंकराचार्य स्वरूपानंद ने एक बार फिर कुछ ऐसा बयान दिया , जिसने बौद्धिक मानसिकता को सोचने पर मजबूर कर दिया हैं। उनके मुताबिक साईं की पूजा करने से सूखा का कहर जारी हैं। साई कोई देव नहीं वे एक फकीर हैं। हरिद्वार में पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने कहा कि जब महिलायें शनि का पूजा करेंगी तो इससे उनपर रेप होने की संभावना बढ़ सकती हैं। शनि शिंगणापुर में महिलाओं का प्रवेश पिछले 400 सालों से बंद था। भूमाता ब्रिगेड़ की अध्यक्ष तृप्ति देसाई ने इसका भरपूर विरोध किया। इसके बाद मामला मुम्बई के हाईकोर्ट में पहुंचा , और कोर्ट ने संविधान में लैंगिक समानता कोे आधार पर शनि शिंगणापुर में प्रवेश रोकने वाले को गिरफ्तार करने को कहा। इसके बाद तो मंदिर ट्रस्ट के महंतों ने पुुरूषों का भी प्रवेश रोक दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दबाव और भक्तों की आस्था के सामने मंदिर ट्रस्ट को झुकना ही पड़ा।
शनि शिंगणापुर के मंदिर ट्रस्ट ने भूमाता ब्रिगेड़ की अध्यक्ष तृप्ति देसाई को खुद आमंत्रित किया हैं। इसी के साथ ही 400 साल की पुरानी परंपरा का भी समापन हो गया। आज जब श्रद्धालुओं ने जबरन मंदिर में प्रवेश किया,तो मंदिर प्रशासन को इसके सामने झुकना ही पड़ा और पुरूषों के साथ ही महिलाओं को भी प्रवेश की इजाजत देनी ही पड़ी। तृप्ति को इससे पहले मंदिर मे प्रवेश से रोका गया था। जिसका उन्होंने विरोध भी किया था। बाँम्बे हाई कोर्ट ने इस नियम का विरोध करते हुए ,संवैधानिक समानता के आधार पर महिलाओं के मंदिर में प्रवेश को रोकने वालों को गिरफ्तार करने का आदेश भी दिया था। इसके बाद भी मंदिर के महंतों ने महिलाओं को अभिषेक करने की अनुमति नहीं दी । तृप्ति देसाई ने महिलाओं के समान हक की बात पर जोर दिया ,और मंदिर प्रशासन के खिलाफ विरोध भी किया। इसके बाद तो मंदिर प्रशासन ने पुरूषो की भी आवाजाही को बंद कर दिया । मंदिर प्रशासन ने सीधे तौर पर हाईकोर्ट की बात को नज़रअंदाज किया। ट्रस्ट को भक्तों की ज़िद के सामने झुकना ही पड़ा,और पुरूषों के साथ ही साथ महिलाओं को भी इजाज़त देनी ही पड़ी। अपनी नाक रखने के लिए ट्रस्ट को भूमाता ब्रिगेड़ की अध्यक्ष को शनि शिंगणापुर आने का निमंत्रण भी देना पड़ा।
धर्मो ने आज भी कुछ ऐसे परंपराओं को अपना सहारा दे रखा है, जिनका सामाजिक मूल्यों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। समय-समय पर कुछ भारतीय समाज सुधारकों ने इसका विरोध कर, उन्हें समाज से बहिष्कृत किया। जैसे – सती प्रथा , पर्दा प्रथा । इनकों भी धर्मो का सहारा ही मिला था। ऐसी प्रथायें होनी ही नहीं चाहिए, जिनका सामाजिक मूल्यों से कोई वास्ता ही न हों।
भारतीय इतिहास के नवजागरण काल में कुछ बौद्धिक समाज को बनाने वाले समाज सुधारकों का खेमा आया, जिसने तत्कालीन प्रथाओं का सामाजिक बहिष्कार किया। आज भी कुछ धर्मों में कुछ कुरीति , प्रथा और परंपरा निहित हैं, जिनका विरोध समाज और समय की मांग हैं। 400 साल पुरानी परंपरा का अंत अपने आप में एक ऐतिहासिक घटना साबित होंगी। असमानता ,ऊंच-नीच ,जातीय मतभेद और कुछ रूकावटे आज भी समाज में पनपती जा रही हैं। यह समाज में इसलिए जगह बनाने में सफल हो पा रही है, क्योंकि समाज का पढ़ा लिखा वर्ग इसमें दिलचस्पी ले नहीं रहा और दूसरी तरफ धर्मो पर नुमाइंदगी करने वालों की कोई कमी नहीं हैं ।
आज जरूरत हैं कि धार्मिक और जातीय मतभेद को दरकिनार कर , राष्ट्रवाद को प्राथमिकता दी जाये ।
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