किशोर कुणाल की किताब AYODHYA REVISITED में बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि का बहुत ही बारीकी के साथ विश्लेषण किया गया है. अपने मिथकों से इतिहास बदलने वाले लोगों को ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए क्योंकि कुछ लोगों की बातों का कोई ही सिरा होता नहींं। वे हवा में सुनी सुनाई बात को मुद्दा बनाते हैं और अंजाम में मिलता ये है कि धार्मिक मुठभेड़ हुई थी.
मैने किसी धर्म में ऐसा नहीं पाया को धर्म आपको बौखलाने की अनुमति देता हो. सोच विचार किये बिना और एक सहारा पाने की खातिर धर्म को अपनी मूर्खता को छिपाने के लिए अपमानित किया जाता है.
बाबरी मस्जिद की हकीकत कुछ इस तरह की है कि 240 साल तक इसका किसी भी किताब में कोई उल्लेख नहीं है. अब आप ही बताइए कि जिस हिंसा की आग में अयोध्या जलता रहा वो बेवकूफी नहीं तो और क्या थी.
वर्तमान में जन माध्यम भी इसे बिना किसी रिसर्च के ही बना-बनाया नाम दे देता है धार्मिक दंगे. अरे भाई एक बारी सोच विचार लेना चाहिए कि आने वाले भविष्य में बन रहे इतिहास को हम अगली पीढ़ी के लिए भी आगजनी तो नहीं बना रहे और आने वाले समय मेें इसका कितना और क्या प्रभाव पड़ सकता है.
किताब में कुणाल लिखते हैं कि-
सोमनाथ में मंदिर तोड़ने और लूट पाट के बाद भी वहां के शैव पशुपताचार्य ने मस्जिद का निर्माण करवाया बल्कि आस पास दुकानें भी बनवाईं ताकि व्यापार और हज के लिए जाने वाले मुसलमानों को दिक्कत ना हो। वहीं वे कहते हैं कि कई पाठकों के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होगा कि 1949 में निर्जन मस्जिद में राम लला की मूर्ति रखने वाले बाबा अभिरामदास जी को 1955 में बाराबंकी के एक मुस्लिम ज़मींदार क़य्यूम किदवई ने 50 एकड़ ज़मीन दान दी थी। कुणाल बताते हैं कि इन विवादों से स्थानीय स्तर पर दोनों समुदायों में दूरी नहीं बढ़ी। वे एक दूसरे से अलग-थलग नहीं हुए।