
सभी मुसलमानों का मानना है कि अल्लाह एक हैं, मुहम्मद साहेब उसके आखिरी पैगंबर और कुरआन आदमजाद की आखिरी किताब हैं. जो इस्लाम का सलाहगार हैं.
तो फिर ऐसा क्यों हैं कि शिया और सुन्नी मुसलमान का रास्ता एक दूसरे का उल्टा हैं. जिस इस्लाम में शांति का जिक्र हैं उसमें कट्टरता का सामाजिक समावेश भी हैं.
वैसे अगर देखा जाये तो इस्लाम मे कुल 73 समुदाय हैं, लेकिन मुख्य रूप से चार बड़े सम्प्रदाय हैं जिसमें सुन्नी, अहमदिया, शिया और खवारिज हैं.
- सुन्नी इस्लाम-
दुनिया में सुन्नी मुसलमान सबसे ज्यादा तादाद में रहने वाला मुस्लिम समुदाय हैं. ऐसा माना जाता हैं कि 21वीं सदीं में संसार में इनकी संख्या बढ़ी हैं. अहल-अस-सुन्नाह की परंपरा पर चलना इनका मकसद है. जिसके मायने है परंपरा निभाने वाले मुसलमान. पैगंबर मुहम्मद की बातों को मानना और उनके दिशानिर्देश को ये अपना सबसे बड़ा मजहब मानते है. इनका अलग राह बना लेने की वजह थी कि आखिर खलीफाओं की नियुक्ति वंशवादी क्यों बना दी गई थी. इनके मुताबिक जो मुस्लिमों का बेहतर प्रतिनिधित्व कर सके उसे खलीफा बनाया जाना चाहिए था.
खास बात ये कि सुन्नी इस्लाम दुनिया की सबसे बड़ी धार्मिक तंत्र हैं. कभी-कभी इसे ऑर्थोडॉग्स इस्लाम कहते हैं. अरबी के सुन्ना से बना सुन्नी है जिसका मतलब होता है हादिथ के अनुसार और पैगंबर मुहम्मद की सलाह पर चलने वाले.
दरअसल सुन्नी इस्लाम में इस्लामी कानून के चार प्रमुख स्कूल हैं. 8वीं और 9 वीं सदीं के दौरान सुन्नी सम्प्रदाय में चार प्रमुख नेता पैदा हुए, जिन्हें इमाम कहा जाता हैं,
पहले इमाम थे इमाम अबू हनीफा, जिन्होंने इस्लाम का प्रचार प्रसार अपने जीवन पर्यन्त किया और सुन्नी सम्प्रदाय में एक अलग पंथ बनाया जिसका नाम था हनफी.

इसी प्रकार सुन्नी इस्लाम में समय समय पर तीन और इमाम हुए, इमाम शाफई(767-820 ई.), इमाम हंबल(780-855ई.), और इमाम मलिक(711-795 ई.). जिन्होंने इस्लामिक कानून की व्याख्या की और आगे वे सुन्नी मुसलमान जिन्होंने इन्हें अपनाया उसे उस पंथ का मान लिया गया.
हनफी सुन्नी इस्लाम –
इमाम अबू हनीफा को मानने वाले मुसलमानों को हनफी कहा जाता हैं. इस इस्लामिक कानून को मानने वाले भी दो गुटों में बंटे हुए है. पहला देवबंदी और दूसरा बरेलवीं. ये दोनों नाम उत्तर प्रदेश के दो शहर देवबंद और बरेली के नाम पर हैं. इसका कारण ये है कि 20वीं सदी के शुरूआती दौर में यहां के दो प्रमुख धार्मिक नेता मौलाना अशरफ अली थानवी (1863-1943), जिनका संबंध दारूल-उलूम देवबंद मदरसे से था और अहमद रजा खां बरेलवीं (1856-1921) , बरेली से थे. जिन्होंने इस्लामिक कानून की व्याख्या अपने हिसाब से की थी.
देवबंदी और बरेलवी विचारधारा के मानने वाले लोगों का दावा हैं कि कुरान और हदीस ही उनके शरियत का मूल हैं. लेकिन इसपर अमल करने के लिए इमाम का सहारा लेना बेहद जरूरी है. इसलिए शरीयत के तमाम नियम इमाम के विचारों से मिलते है और ये उन्हें अपनाते भी है.
बरेली में आला हजरत खान की मजार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वाले लोगों के लिए एक बड़ा केन्द्र हैं.
देवबंदी और बरेलवीं भारत में पले-बढ़े हैं. लेकिन इनमें कुछ मतभेद हैं. जैसे- बरेलवीं इस बात को मानते हैं कि पैगम्बर मुहम्मद सब कुछ जानते हैं. वे हर जगह मौजूद है और सब कुछ देख रहे हैं. वहीं देवबंदी इसमें विश्वास नहीं रखते है. देवबंदी अल्लाह के बाद नबी को दूसरे स्थान पर रखते है लेकिन उन्हें इंसान मानते हैं.
बरेलवीं सूफी इस्लाम के अनुयायी है और उनके यहां मजारों को प्रमुखता प्रदान की गई हैं जबकि देवबंदी में इन मजारो को इतनी अहमियत नहीं दी गई हैं.
हज़रत अब्दुल क़ादिर जीलानी का रोजा, बगदाद
मालिकी सुन्नी इस्लाम-
इमाम मालिक के इस्लामी नियमों की व्याख्या को मानने वाले एशिया में कम हैं. इनकी एक प्रसिद्ध किताब इमाम मोत्ता का अनुसरण करने वाले मालिकी कहलाते हैं. ये समुदाय आमतौर पर मध्य-पूर्व अफ्रिका में रहते हैं.
शाफई सुन्नी इस्लाम-
शाफ़ई इमाम मालिक के शिष्य हैं और सुन्नियों के तीसरे प्रमुख इमाम हैं. मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा उनके बताए रास्तों पर अमल करता है, जो ज़्यादातर मध्य पूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में रहता है. इमाम मालिक की परंपरा को अपना सब-कुछ मानने वाले मुसलमान शाफई कहलाते हैं.
हंबली सुन्नी इस्लाम-
सऊदी अरब, कतर, कुवैत में ज्यादातर मुसलमान आबादी इमाम हंबल के फिकह यानी इस्लामिक कानून का अनुसरण करती हैं.
सऊदी अरब की सरकारी शरियत इमाम हंबल के धार्मिक कानूनों पर आधारित हैं. उनके अनुयायी ये मानते हैं कि कुरान औऱ इमाम हंबल की बातों में ज्यादा फर्क नहीं हैं और कोई भी इनसे बेहतर इमामी नहीं कर सकता हैं.
सल्फी, बहावी और अहले हदीस सुन्नी इस्लाम-
सुन्नियों में एक समूह ऐसा है जो किसी एक इमाम को नहीं मानता. इनका मानना है कि हदीस (पैगंबर के कहे हुए शब्द) के आधार पर चलना सही हैं. ना कि किसी विशेष इमाम की बातें मानना जरूरी. दुनिया में इन्हीं समुदाय को सल्फी, वहाबी और अहले-हदीस के नाम से जाना जाता हैं.
दूसरी तरफ ये सुन्नी इमामों का कद्र भी करता हैं.
सल्फी समूह का कहना हैं कि वह ऐसे इस्लाम का प्रचार चाहता हैं जो पैगम्बर मोहम्मद के समय में था.
इन सभी समुदायों में माना जाता है कि ये धार्मिक कट्टरता करते हैं. सऊदी अरब के मौजूदा शासक इसी पंथ को मानते हैं. अल-कायदा का प्रमुख ओसामा बिन लादेन भी सल्फी समुदाय का था.
सुन्नी बोहरा-
गुजरात, महाराष्ट्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुसलमानों के कारोबारी समुदाय के एक समूह को बोहरा के नाम से जाना जाता हैं. बोहरा शिया औऱ सुन्नी दोनों होते हैं.
- शिया मुसलमान-
शिया मुसलमान इस्लाम का वो तबका हैं जिसका मानना हैं कि पैगंबर मोहम्मद साहेब के बाद इस्लाम का खलीफा बनने के असल हकदार उनके दामाद अली थे. उनका कहना है कि खुम्म सरोवर पर एक जनसभा में पैगंबर ने इस बात का निर्णय लिया था कि इस्लाम के अगले सर्वेसर्वा अली होंगे.

शिया मुसलमान मोहम्मद के बाद बनायें गए तीन खलीफाओं को अपना नेता नहीं मानते है. शिया इन तीन खलीफाओं को गासिब कहते है. अरबी में गासिब का मतलब हड़पने वाला होता हैं.
दुनिया में सुन्नी के मुकाबले शियाओं की संख्या बहुत कम है. जहां सुन्नी मुसलमानों की तादात दुनियाभर में 80 फीसदी है वहीं शिया केवल 15 फीसदी ही है.
आगे चलकर शिया सम्प्रदाय भी कई समुदायों में बंट गया…,
इस्ना अशरी शिया इस्लाम-
सुन्नियों की तरह शियाओं में भी कई समुदाय होते है. लेकिन इस्ना समूह में दुनिया के 75 फीसदी शिया है. ये पहले बारह इमामों को मानता हैं.
इस्ना अशरी समुदाय का कलमा सुन्नियों से अलग है. इस्ना अशरी अपना पहला इमाम हजरत अली को मानते हैं. इनके अंतिम यानी बारहवें इमाम जमाना, (जो इमाम महदी के मान से भी जाने जाते हैं) थे. ये अल्लाह, कुरान और हदीस को मानते हैं लेकिन सिर्फ उन्हीं हदीसों का अनुसरण करते हैं जो इमामों के जरिए आये हैं.
कुरान के बाद जिस किताब को इस्ना असरी सबसे ज्यादा सम्मान देते है वो हैं उनके अली के सिद्धांतो पर लिखी गई है जिसका नाम हैं नहजुल बलागा.
खासतौर पर ये मुस्लिम समुदाय ईरान, इराक, भारत और पाकिस्तान में फैले हुए हैं.
जैदिया शिया इस्लाम-
ये शियाओं का दूसरा सबसे बड़ा समुदाय हैं. इनमें और इस्ना अशरी ये अंतर हैं कि वे 12 इमामों को मानते हैं और ये केवल 5 इमामों में अपना विश्वास रखते है. इनके चार इमाम इस्ना असरी के ही हैं लेकिन पांचवे और अंतिम इमाम इनसें अलग हैं. जो हजरत अली के पोते हैं और हुसैन के बेटे. जिनका नाम जैद बिन अली है इसी नाते इस समुदाय को जैदिया कहते हैं.
यमन में रहने वाले हौसी जैदिया समुदाय के मुसलमान हैं. ये जिस इस्लामिक कानून को मानते है वो जैद बिन अली की किताब मजमऊल में समझाई गई हैं.
इस्माइली शिया इस्लाम-
जिस प्रकार इस्ना असरी के 12 और जैदिया के 5 इमाम हैं ठीक उसी प्रकार इस्माइली शियाओं के 7 इमाम हैं, इनके अंतिम इमाम मोहम्मद बिन इस्माइल हैं जिनके नाम पर ही इस समुदाय को इस्माइली शिया कहा जाता हैं.
पहले तो ये इस्ना असरी के ही राह पर चलते थे लेकिन इनका उनसे मतभेद हो गया और इन्होंने इस्माइली पंथ को अपना लिया. विवाद की वजह ये थी कि सातवां इमाम किसे बनाया जाए, इमाम जाफर सादिक के बाद उनके बड़े बेटे इस्माइल बिन जाफर को या फिर दूसरे बेटे को.
इस्ना अशरी ने अपना सातवां इमाम उनके दूसरे बेटे मूसा काजिम को बना लिया जिसकी वजह से शिया सम्प्रदाय में एक नया समुदाय बनाना पड़ा इस्माइली.
ज्यादातर इस्माइली ईरान, मिडिल ईस्ट, भारत और पाकिस्तान में रहते हैं.
इस्माइली भी अब एक नहीं रहें. इनमें भी फिर से चार समूह बन गए हैं. फातमी, बोहरा, खोजे और नुसैरी.
- अहमदिया इस्लाम-
हनफी इस्लामिक कानून को मानने वाले मुसलमानों का एक तबका अहमदिया कहलाता हैं. इस समुदाय की स्थापना भारतीय पंजाब के कादियान में मिर्जा गुलाम अहमद ने 1889 में की थी. इन लोगों के मुताबिक मिर्जा गुलाम अहमद खुद नबीं का ही अवतार थे.
अहमदिया मुसलमानों के मुताबिक मिर्जा गुलाम अहमद इस्लाम के अंतिम पैगंबर थें.
गुलाम अहमद में एक खास बात ये थी कि वे कोई शरियत नहीं लाये थे बल्कि उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त पैगंबर की बातों को अपनाया और इसका प्रचार-प्रसार करते रहें. अहमदियों का मानना है कि ये इस्लाम के सबसे बड़े धर्म सुधारक थे. जो नबी की ही तरह है.
बस इसी बात का मतभेद हैं जिसके नाते मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानता हैं. हालांकि भारत के अलावा पाकिस्तान औऱ ब्रिटेन में अहमदियों की अच्छी खासी संख्या है.
पाकिस्तान में तो अहमदियों को मुसलमानों की पदवीं औऱ इस्लाम से खारिज कर दिया गया हैं.
- खवारिज इस्लाम-
खवारिज अपनी कट्टरता की वजह से जाना जाता हैं. इनके सिद्धांत शिया और सुन्नी से पूरी तरह से अलग हैं. इनका मानना हैं कि किसी भी शासन का विरोध होना चाहिए जो इस्लाम का सम्मान नहीं करता हैं और इसके विस्तार के लिए हाथ नहीं बढ़ाता है.
हद तो तब हो गई जब इस समुदाय ने एक बार पैगंबर मुहम्मद के पवित्र शहर मदीना के मस्जिद पर बम विस्फोट करवाया था.