विपक्षी पार्टियां और सपा राजबब्बर को दागा कारतूस और अभिनेता से नेता के नाम से बुला रही हैं. ये तब है जब इन्हें यूपी चुनाव का कमान कांग्रेस पार्टी द्वारा सौंपा जा चुका हैं. लेकिन..,

फर्स्टपोस्ट में दिए गए तथ्यों से साबित होता हैं कि कांग्रेस पार्टी राज को एक भरोसे के नजर से इसलिए देख रही हैं क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि ये अभी-अभी राजनीति में कदम रख रहें है, बब्बर का राजनीति में कदम रखना 27 साल पुराना हैं जब वो पहली बार जनता दल से जुड़कर अपने राजनीतिक जीवन का सफर प्रारम्भ किये थे, कांग्रेस पार्टी को बब्बर के बेबाकी से बोलने वाली अदा पर पूरा यकीन है और शायद इस चुनाव में कांग्रेस इसी बात को भुनाने वाली हैं. इतना पुराना अभिनेता अब तक तों नेता बन ही चुका होगा.
राज लंबे समय से पार्टी से जुड़े हैं और मौजूदा वक्त में राज्यसभा सांसद हैं. दो बार यूपी से लोकसभा सांसद रह चुके हैं. उन्होंने लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव की पत्नी और मुलायम सिंह यादव की बहू डिंपल यादव को फिरोजाबाद हराया था. ऐसे में राज बब्बर के कद पर पार्टी में किसी को कोई संदेह नहीं है. कांग्रेस का मानना हैं कि राज बब्बर को 2014 में जनरल वीके सिंह से मिली हार का कारण मोदी लहर था.
इन सबके बाबत ये माना जा रहा हैं कि कांग्रेस के सभी वक्ताओं में बब्बर एक खास स्थान रखते है जिस वजह से इनकों यूपी के 2017 के विधानसभा चुनावी दंगल में कांग्रेस अपना कमान संभालने के लिए उतार रही हैं.
इंडियन एक्सप्रेस में आई खबर के मुताबिक राजबब्बर के अध्य़क्ष बनाए जाने के साथ ही साथ कांग्रेस पार्टी ने यूपी में जिन चार अध्यक्षों को चुनावी मैदान में उतारा है वो एक रणनीति की तरह हैं जिससे पार्टी को पूरा फायदा मिल सकेगा. चार उपाध्यक्षों की कड़ी राजाराम पाल बैकवर्ड, राजेश मिश्रा सवर्ण, भगवती प्रसाद चौधरी दलित और इमरान मसूद अल्पसंख्यको की वोटबैंक को साधने के लिए उतारे गए हैं.
राज बब्बर एक सफल अभिनेता तो हैं ही साथ ही साथ एक अच्छे वक्ता के रूप में भी कई बारी रोमांचक तरीके से जनसमूह को संबोधित कर चुके है. इसी वजह से कांग्रेस इनको भरोसे के नजरिए से देख रही हैं. हां कई बारी ऐसा हुआ हैं कि जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कुछ ज्यादा ही बोल दिया था और विवादों में घिर गए थे. लेकिन मौजूदा वक्त में उन्हें यूपी विधानसभा के लिए मैदान में उतारा जाना कांग्रेस का एक आशावादी निर्णय दिख रहा हैं.
चूंकि राज बब्बर जनता दल के बाद सपा पार्टी में भी रह चुके हैं इसलिए उन्हें सपा की अन्दरूनी दाव-पलट का पूरा अनुभव हैं. 2006 में सपा छोड़ने के बाद 2008 में ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गये थे. उसके बाद से इसी पार्टी में है.
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में जिन नामों की अटकनें लगाई जा रही थी उनमें जतिन प्रसाद, डॉ. राजेश मिश्र, निर्मल खत्री और शीला दीक्षित की काफी चर्चा थी.
एनडीटीवी के मुताबिक, जैसा कि जगजाहिर हैं यूपी की वोटबैंकिंग का आधार हमेशा से जाति फैक्टर रहा हैं. वे सोनार जाति से आते है. जो ओबीसी के कैटेगरी में आती हैं. यूपी चुनाव में इसकी वजह से उन्हें मुसलमानों, सवर्णों और ओबीसी में आने वाले गैर-दलितों का सपोर्ट मिलने के कयास लगाए जा सकते हैं.
अधिकांश हिन्दी न्यूजपेपर का मानना हैं कि लोकसभा में डिम्पल यादव को हरा पाना इतना आसान नहीं था. ये बब्बर के लिए प्लस प्वाइन्ट्स है. यूपी की बहू पर इतराने वाली शीला दीक्षित चुनाव कैंपेनर होंगी जिससे ये कयास लग रहा हैं कि सवर्णो का वोट कांग्रेस की तरफ आ सकता हैं. प्रियंका गांधी भी बब्बर के साथ हैं. विपक्षी दलों की परेशानी का सबसे बड़ा कारण बब्बर को यूपी की कमान सौंपना दिखाई दे रहा है.