उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, 2017 का सबसे बड़ा चुनाव होने के साथ ही आजाद भारत का सातवां दशक पूरा होने का साल भी होगा. ये चुनाव बहुत छोटा सा निर्णय नहीं होगा. ये साबित करेगा उन सभी राजनीतिक पार्टियों की वास्तविक जनभागीदारी जिनके दावें तो बहुत सारे है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही दिखाई दे रही है. राजनीतिक पार्टियों को जनवाद के निर्णय को मानना पड़ा है.
पछताना लोकतंत्र में केवल जनता के हिस्से में ही होता है क्योंकि जिन वादों पर भरोसा करने के बाद वो वोट देती है. वो वादे अक्सर झांसे में तब्दील हो जाते है. जनता के भरोसे से खेलना आज की राजनीति कही जा सकती है.
जनता की उम्मीदों पर पानी फेरने के काम में निपुण पार्टियां कई दफा सफलता तो हासिल कर लेती है. लेकिन लोकतंत्र की ऐसी रवायत जिसमें सियासत और आवाम के बीच कुछ भी ना छिपाये जाने की बात कही जाती है यानी पारदर्शिता का हवाला रखा जाता हो. क्या ऐसे में राजनेताओं पर वादे से मुकर जाने पर कोई सजा मुकर्रर नहीं की जा सकती है.