भारत में हर रोज तकरीबन 15 लाख शादिया ऐसी होती हैं, जिनमें महिला की मर्जी नहीं होती. करोड़ो लोगो को संस्कार, रीति-रिवाज़ और परंपरा के नाम पर किसी के भी मत्थे मढ़ दिया जाता है. विवाहों में धर्म और जाति की बेड़ियों को तोड़ने वाले अक्सर इस झंडावरदार समाज के लोगो द्वारा आॅनर किलिंग के शिकार बन कर रह जाते हैं.
ऐसे वाकयों से डरकर बुद्धिजीवी वर्ग के युवा भी धर्म से परे शादी करने का साहस नहीं जुटा पाते. मेरा मानना है कि जब तक ये रूढ़िया समाज में हैं. हम संकुचित और अलग-बिलग रास्ते पर ही चलते रहेंगे.
आज के समाज में पढ़े-लिखे लोग इस बात से डरते हैं कि अंतर्जातीय विवाह कर लेने से हमारी बिरादरी वाले लोग क्या कहेंगे. इस प्रकार की मानसिकता क्या उस बदलाव और नये धरातल को बना पायेगी, जिसके बल पर कल को जाति और धर्म की बेड़ियों को तोड़ एक बौद्धिक समाज से राष्ट्रहित किया जा सके.
देश आज भी गुलाम है, युवापीढ़ी आज भी अपनी बातें मनवा नहीं पा रही. हां, कुछेक जागरूक युवा ऐसी पहल करते है जिनको धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पता है.
साम्यवाद क्यों नहीं आना चाहिए इस धरती पर. जिस दिन देश के जिम्मेदार पुरुष और महिलायें इस पाबंदियों और अंतर्जातीय विवाहों का सूत्रपात कर एक नये युग के शुरुआत की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर देंगे, मै दावे के साथ कह सकता हूं कि आने वाली सुबह फिर से कोई जनगद्दार नेता हमें आपस में लड़वाकर कर्फ्यू लगाने और हमें बांटने की कोशिश नहीं कर पायेगा.
इन बातों का ये बिल्कुल मतलब नहीं हैं कि दूसरे धर्म और दूसरी जाति से विवाह करने के बाद महिलायें अपना पैतृक धर्म भूल जाये. ऐसा बिल्कुल भी नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि ये तो बस पुरुष तानाशाही को दर्शाता है.
आज भी पिता की इज्जत और सामाजिक बंदिशो के नाम पर कुछ महिलायें विवाह कर लेती हैं, लेकिन अनमेलपन के दंश को झेलने ना तो वो पिता जाता हैं और ना ही झंडावरदार समाज.
(ताउम्र हम उम्मीद में….,)