​अंधेर नगरी में लोकतंत्र(भाग- दो)

(…,तो क्या उत्तराखंड को आंदोलन की राह पकड़ लेना चाहिए )
उत्तराखंड 16 साल का हो चुका है. तब से अब तक 32 लाख लोगो ने अपना घर पहाड़ में छोड़ दिया. एक गैर सरकारी आंकडों के अनुसार 2 लाख 80 हजार 615 मकानों पर ताले पड़े हुए है. वैसे सरकारी पहलों का असर पड़ा होता, तो यहां के रहने वालों को ऐसे दिन देखने नहीं पड़ते. अक्सर जिन बातों का हवाला देकर देश की पार्टिया सरकारे बनाती है. उनको ही याद रखना भूल जाया करती है. गांव और पहाड़ का मरम्मत कब होगा? आजाद भारत में उत्तराखंड के पहाड़ों और गांवों के सूनेपन ने अंधेर नगरी के इस लोकतंत्र से कई बार ये सवाल किया मगर पहाड़ के लोगो का भला हुआ नहीं, पलायन हुआ. 
दोयम दर्जे की राजनीति करने वाले लोग छाती ठोकते नजर आते है. ये देश का दुर्भाग्य ही है कि पहाड़ पर रहने वालों के पास पहाड़ जैसा दुख अपना रोना रो रहा है. 

जिस प्रदेश में खेती और किसान की उपेक्षा होती हो, जिस प्रदेश में अमीर को ज्यादा अमीर और इसी के साथ गरीब को ज्यादा गरीब बनाने की नीतियां हो. जिस प्रदेश के मेहनतकश लोग शोषित और तिरस्कृत किये जा रहे हो. जिस प्रदेश  को चलाने वाले लोग ही उसे उजड़ने पर मजबूर कर रहे हो, जिस प्रदेश का निचला तबका दुश्वारियों में जीवनयापन करने के लिए विवश हो रहा हो. जिस प्रदेश में सरकारों की नीतियों का असर उसके निवासियों के साथ ठगी करता हो,…., इन बातों की फेहरिस्त में

क्या उत्तराखंड को आंदोलन की राह पकड़ लेनी चाहिए.

Published by Abhijit Pathak

I am Abhijit Pathak, My hometown is Azamgarh(U.P.). In 2010 ,I join a N.G.O (ASTITVA).

2 thoughts on “​अंधेर नगरी में लोकतंत्र(भाग- दो)

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