मेरा हमेशा से ही इस प्रकृति और परिवेश के प्रति एक आदर रहा है. ये लगाव इसलिए था क्योंकि मै जन्म से ही भारतीय संस्कृति से प्रभावित रहा हूं. इस संस्कृति के पास बैठकर मैने प्रेम का सृजन, बंधुत्व, परोपकार, करुणा, आस्था, सामूहिकता और सौहार्द समझा.
संस्कृत उद्बोध और अपार ज्ञान की भाषा है. जीवनमूल्यों और आदर्श जीवन व्यवस्था इसमें निहित है.
हिन्दी और उर्दू से भी मेरा एक अटूट संबंध है. इसलिए मै इन तीनों भाषाओं का समान आदर करता हूं. प्रयास यही रहता है कि इस घालमेल में थोड़ा और लयलीन हो सकूं. अध्ययन जड़ को भी विद्वान बना सकती है इसलिए अपनी कमियों, नाकामियों और अक्षमताओं रुपी पहाड़ पर मै निरंतर अध्ययन रुपी हथौड़े के प्रहार को जारी रखता हूं. कभी कभार तो ऐसा लगता है कि इन सबका फायदा तो मिल नहीं रहा लेकिन मानसिक संतुष्टि भरपूर मिलती है और ये साथ ही साथ जीवन लय को बरकरार रखते हुए उबाऊपन को दूर रखने की कोशिश करती रहती है.
मै अक्सर पाया कि एक गजलकार, गीतकार और शायर ने जिस दर्द को पाला और लिखा उन्हें वे लोग भी पसंद करते है जो ताउम्र और अपने जीवन में भी इन सब बातों से कोसो दूर थे.
करुणा और नेह का आजन्म सम्मान करने वाला कवि हमेशा इसके सृजन और इसके मायने से भटके हुए लोगो को सही रास्ता दिखाने के लिए लिखता है. वो संवेदना का महारथी होते हुए भी रोता कम और समझाता ज्यादा है. सौहार्द और नेह सबके भीतर होता जरुर है कुछेक कुछ शर्तो में उलझे होते है और कुछ भावन और अभावन की फेहरिस्त में.
ये समाज जो अपना चुका है और प्रगतिशील सोच को भाता नहीं; उसके लिए भूमिका बधाना भी कविधर्म रहा है.
समर शेष है….,,,,