भारत में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी रहती है. भारत भूख की समस्या से लड़ रहा है. यहां के रहने वालों के सामने भूख की एक बड़ी समस्या मुँह बाये खड़ी है. भूख की वजह से कुपोषण और बच्चों में मृत्युदर की संभावना बनती है. हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट इस समस्या की परिचायक है. इसके मुताबिक भारत की स्थिति बांग्लादेश और नेपाल से भी बुरी है. जहां चीन इस इंडेक्स के मुताबिक 29वें स्थान पर, नेपाल 72वें स्थान पर और श्रीलंका 84वें स्थान पर है, वहीं भारत की रैंकिंग निराशाजनक है. भारत इस सूची में 97वें स्थान पर है. जिसके बाद ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होना चाहिए कि अंधेर नगरी में लोकतंत्र की शब्दिता वजूद रखती है.
नवजात शिशुओं में मृत्युदर में कमी आई है मगर उनके पोषण की कमी सुधारी नहीं जा सकी है. इस संदर्भ में सबसे बुरी हालत गांवों और शहरीकरण के बाद बने झुग्गी झोपड़ियों की है. गांवों में बसने वाला भारत, अब गांवों में नहीं रहता. बाजारवाद की चोट ने इसे घायल कर दिया है. औद्योगीकरण ने शहर बसाये, लोकतंत्र ने उसे भारत समझ लिया. मीडिया ने इसकी समस्याओं को पहली प्राथमिकता देना सही नहीं समझा. खैर, बात हो रही थी गांव में भूख, कुपोषण और बच्चों में मृत्युदर की समस्या की. गांवों में खासी स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध नहीं है.
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के द्वारा अगर काम हुआ होता तो भारत में पांच साल तक के बच्चों में मृत्युदर 47.7 फीसदी ना होती. इस मामले में तो भारत से बेहतर इसके पड़ोसी देश बांग्लादेश (37.6) और श्रीलंका (9.8) ही है.
अल्पपोषित बच्चे भारत के भाग्य विधाता कैसे बनेंगे! इसी बीच एक देशगीत मन में संशय अलाप रहा है और उम्मीदों के रखवालों से उम्मीद रखने पर भी संशय;
हम लाये है तूफान से किश्ती निकाल के,
इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के.
अंधेर नगरी में लोकतन्त्र भाग-3 एक सवाल छोड़ जाता है कि जो व्यवस्था देश में भूखमरी और कुपोषण समाप्त नहीं कर सकती. राष्ट्रहितैषी लोग उन बच्चों के भरोसे कहीं बदलाव के सपने पालने की भूल तो नहीं कर रहे.