ये बेहद जरूरी है कि लेखन अपनी सहजता ना खो दे. कई दफा ऐसा होता है कि लेखक और आलोचक बस इतना देखते ही हाथ-पैर मारने लगते हैं कि किसके ऊपर लिखना है और लेख का अंतर्वस्तु किस ढब का है. अगर आलोचक हैं तो वे झटपट जिस किताब, फिल्म या पूरे सिनेमा या मीडिया पर आलोचना लिखनी है उसको पढ़ लेते है, उनके बारे में कुछ जानकारियां बटोर लेते है.
करीब दो दशक पहले ऐसा नहीं होता था.
भारत के आलोचक और लेखक अध्ययन की गहनता और कायदे का नजरिया रखने वाले रहे हैं. अब जिस देश में आलोचक सम्राट रामचंद्र शुक्ल पैदा हुए हो; वहाँ के नामी-ग्रामी लेखकों और आलोचकों को उस वटवृक्ष के नीचे छहाना तो जरुर चाहिए. रामचन्द्र की आलोचना की छाया में आलोचना का मकसद और पूरा कायदा बहुत ही निर्णायक साबित हो सकता है.
मेरे पत्रकारिता के सबसे अच्छे प्रशिक्षक Hemant सर की क्लासेज आज भी बिसारी नहीं जाती. उनकी कुछ लाइनें आज भी गूंजती रहती है. उनके अनुसार जिस दिन आपके भीतर का विद्यार्थी आपके साथ नहीं होगा, आप समाप्त हो जायेंगे.
ये बातें यहाँ अप्लाई की जा सकती है. आज के लेखक और आलोचक मेहनतकश नहीं है. वे कामचलाऊ हो गये है.
इस लेख को लिखने के लिए मैने लखनऊ से निकलने वाली एक साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ के तीन चार अंक पढ़े. उनमें भी आलोचकों की होड़ थी. जो आलोचनाएं थी उनमें कुछ बाकी था.
उसमें मुझे आलोचनाओं के अलावा दो लाइन की समीक्षा और दो लाइन मुक्तिबोध की लगातार मिलती गई. ये लेख गजानन माधव ‘मुक्तिबोध पर था. मगर मुक्तिबोध की जन्मशताब्दी पर जो भी लिख और छाप दिया गया था, उसका रास्ता मुक्तिबोध तक नहीं पहुंच रहा था.
पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मैने पढ़ा था कि एक समय था जब प्रेमचंद ने सोजे वतन लिखा था. अंग्रेजों ने ये किताब ही जला दी थी. मगर ये किताब आज भी उपलब्ध है. यानी प्रेमचंद ने इस किताब को फिर से लिखा. वैचारिक लड़ाई कलम लड़ सकती है, मगर उसे उसका मकसद साफ-साफ पता होना चाहिए. उसमें ये भी पढ़ाया गया था कि कैसे पराड़करजी बनारस में बैठकर लिखते थे और दिल्ली के वायसराय को देखना पड़ता था कि कहीं पराड़करजी ने मेरी खबर तो नहीं ले ली.
ये सब बातें इसलिए क्योंकि आज के लेखक समरी लिखते और लिखवाते है. हाँ, आज के कुछ आलोचक भी इस वैचारिक शुरुआत को पेशा समझ बैठे है और अनगढ़ आलोचना प्रस्तुत कर रहे है.
साहित्यिक पत्रकारिता में शुरू से ही खासी दिलचस्पी रही है. मेरे घर ही से दो मैगजीन निकलती है. साहित्यिक पत्रकारिता से संबंधित सबके दावेदार, इसके 81 अंक निकल चुके है और इसके जरिए ही मैने पढ़ना और साहित्य को समझना शुरू किया था. इसके जरिए मैने जिनकी कुछ लाइनें पढ़ी और समझी उनमें; राही मासूम रजा, मुक्तिबोध, शलभ श्रीराम सिंह, देवेन्द्र आर्य, वशिष्ठ अनूप, पंकज गौतम, लालसा लाल तरंग, विज्ञानव्रत, शिवकुमार पराग और तमाम गीतकार, कवि और लेखक इस क्रम में आते गये.
दूसरी पत्रिका जलवायु आती है जो मुख्य तौर पर शैक्षिक पत्रिका है, लेकिन इसमें जो कंटेंट होते वे भरसक हर तरह के होते है, पालिटिकल, लिटररी और सिनेमाई.
अब बात फिर से अंग्रेजियत की. जब बंदूक की नोंक पर मनमर्जियां होती थी और लोग लट्टू बन जाते थे. भला हो उस समय के नौजवानों का जो आंदोलनों के सहभागीदार बनें. उस समय पत्रकार गाँधी का रोल मुख्य तौर पर बहुत ही असरदार था. तिलक की पत्रिका केसरी और मराठा वैचारिक लड़ाई तो लड़ ही रही थी, साथ ही देश के नौजवानों को एकजुट करने का भी काम कर रही थी.
दरअसल, जिस पत्रकारिता को हमने काम समझ रखा है उसका कार्यक्षेत्र बहुत बड़ा है. अगर आप हिन्दी साहित्य पढ़ रहे है तो अपने लेख को संवारने के लिए शब्दों का फूलमाला गूथ रहे है जिससे आपके लेख का माल्यार्पण हो सके और वो सम्मान को प्राप्त करे.
अगर आप लाॅ की किताब पढ़ रहे है तो आप किसी यथार्थ के केस की कलई खोलने की कोशिश में लगे है. इसी प्रकार अगर आप राजनीति की किताब पढ़ रहे है तो आप आज की राजनीति के महत्वहीन होने की बात समझ सकते है.
मैने जितना पढ़ा, जाना और समझा है उस हिसाब से मुझे साहित्य जगत में एक बेजोड़ कुहरा दिखाई दे रहा है. साहित्य; पत्रकारिता के दायरे में आता है और आलोचक ही साहित्यिक पत्रकार होता है.
मेरे अल्पज्ञान और ज्यादा जिज्ञासा की वजह बस इतनी है कि मुझे पुराने आलोचकों और नये आलोचको की संपादिता में बहुत भेद दिखाई देता है. मै आलोचको की काबिलियत पर शक नहीं कर रहा. कुछ तो बहुत ही सधा और सपाट लिखते है. मगर इन सबके बाद भी मन को अतीत के साहित्यानुदानों जैसी संतुष्टि नहीं मिलती. जैसे लगता है कि;_
अब ना तो वो बात रही, जो तब होती थी;
इतनी मुलाकातों से खीझ चुका हूं मै!
#ओजस