मै इस खास बिषय पर अपने दोस्त से सेलफोन पर बात कर रहा था. बात बस इतनी हुई थी कि विवेकानंद अपने विचार के लिए देश दुनिया में जाने जाते है. शिकागो के सर्वधर्मसम्मेलन में उन्होनें सनातन परंपरा पर अपने वक्तव्य से भारतवर्ष की गरिमा को भी बढ़ाया था. विवेकानंद को मैने भी बहुत करीब से समझने की कोशिश किया उनकी किताबों से लगातार उन्हें समझने की कोशिश में लगा रहा. बात तब की है जब मै आठवीं पास कर चुका था. घर पर एक तस्वीर होती थी, जिसपर विवेकानंद का फोटो और एक उद्बोध भी था. उद्बोध यह था कि उठो जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रूको मत! मै इस बात से रत्ती भर भी इंकार नहीं कर सकता कि ये लाइने किसी नौजवान के लिए प्रेरक थी. दरअसल, ये लाइने संस्कृत के एक श्लोक से भी मिलती है, जो थी; उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत. इससे ये समझ में आता है कि विवेकानंद भारतीय परंपरा के कितने करीब रहे होंगे!
खैर, मुझे आज उस महामानव की एकाध बातों का मकसद साफ नहीं दिखाई देता और मेरा मन असमंजस के कचोट खाता रहता है.
कलकत्ता के इस समाज सुधारक और नौजवानों में ऊर्जा भरने वाले व्यक्तित्व के वैचारिक पक्ष को ना मानना मेरी भूल भी हो सकती है. मगर वैचारिक होना, बिना प्रायोगिक हुए, बिना किसी अनुभव के सही कैसे हो सकता है?
नास्तिक रहते-रहते कोई आस्तिक हो जाता है. इसी के साथ विज्ञान समझते-समझते अध्यात्मवादी. सरदार भगतसिंह क्यों आस्तिक नहीं हो गये. इसलिए कि उनका विचारपक्ष बहुत मजबूत था. विज्ञान के साइंटिस्ट अध्यात्म की बातों में अपना शोध लय नहीं होने देते.
सनातन परंपरा में एक खास बात है कि इसमें जो बहुत ही तर्कसंगत बात है वो यह है कि शाश्वत सत्य का अनुशीलन करती है, बिना झेले किसी के कथन को निराधार बताती है. एक साथ दो पक्ष नहीं रखने देती.
गजलकार दुष्यंतकुमार भी युवाओं में ऊर्जा भरने लायक लिखे है. मगर उनके कथनी करनी में जरा सा भी अंतर नहीं दिखाई देता है;
जो मै ओढ़ता-बिछाता हूं,
वो गजल आपको सुनाता हूं.
मतलब साफ है कि दुष्यंत ने रोजमर्रा की जिंदगी में जो झेला उसे लिख दिया. विवेकानंद लिख तो देते है लेकिन वैसा अनुभव शायद उन्होनें नहीं किया होगा.
ब्रह्मचर्य का पालन करना, आत्मसंयम बनाने भर की बात नहीं होता. एक नौजवान ब्रह्मचर्य का अगर पालता है तो वो जरुर किसी हद तक समझौता करता होगा. ब्रह्मचर्य अपने आप में ही सत्य और भ्रम के बीच की कड़ी है.
दुष्यंत को फिर पढ़िए;
तुझको निहारता हूं, सुबह से ऋतंबरा;
अब शाम हो गई है मगर मन नहीं भरा.
ये लाइनें सत्य का अनुशीलन कर रही है, इसका मतलब हुआ कि ये लाइनें सनातनी है. ब्रह्मचर्य होना सनातनी हो सकता है लेकिन सत्य का अनुशीलन कैसे करता होगा?
कुल मिलाकर विवेकानंद का नरेन से विवेकानंद बनना ही सनातनी व्यवस्था के विपरीत है, दुविधाओं से भरा है. सत्य के अनुशीलन का विरोधी है. विदेशों में तमाम व्याख्यान इसलिए थे कि सनातन परंपरा का विस्तार हो सके, तो सनातन ना कभी शुरू किया गया था और ना ही इसका अंत होगा. ये विचार समन्वय का समतल बनाने वाला, धारण करने योग्य धर्म है!
अभिजीत पाठक