असम सरकार ने संस्कृत को 8वीं क्लास तक अनिवार्य कर दिया है. इसके कई पहलू नजर आ रहे है. पहला; अगर संस्कृत भाषा के अच्छे विद्यार्थी इस भाषा में खुद को पारंगत कर भी लेते हैं तो क्या उच्चतर शिक्षा में संस्कृत इनका साथ देगी. ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो सकेगा क्योंकि संस्कृत भारत की पौराणिक और शास्त्रीय भाषा है. पूरे भारत में महज 2 फीसदी लोग ही संस्कृत को ठीक ढंग से समझते है. हाँ, अगर कोई विद्यार्थी इस भाषा में उच्चतर शिक्षा हासिल भी कर लेता है तो उसे इसका बहुत कम फायदा मिलेगा. संस्कृत चलन से बाहर है. संस्कृत कुछ मानद महाविद्यालयों और सभागारों में ही बची है. विवाहोत्सव में आप संस्कृत के श्लोक सुनते होंगे लेकिन समझते नहीं होंगे. संस्कृत का विवाह में बोला जाना सिर्फ एक रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ भी नहीं जान पड़ता. संस्कृत सुनकर ज्यादातर लोगो को दूराव की स्थिति का सामना करना पड़ता है.
दूसरा पहलू कुछ इस तरह है कि, संस्कृत में तमाम ग्रंथ और उपनिषद लिखे गए है जो नैतिक मूल्यों के संवर्धन के लिए बेहद जरूरी है. ब्राह्मी लिपि आधारित भाषा संस्कृत भारत को अक्षर की वैज्ञानिक संरचना देता है. महर्षि पाणिनी संस्कृत व्याकरण की किताब अष्टाध्यायी में अक्षर को ब्रह्म कहते है. हर वर्ग को एक विशेष स्थान से प्रस्फुटित होता मानते है. जैसे;
क वर्ग- कण्ठ;
च वर्ग- मूर्धा(दाँत के ऊपर का हिस्सा)
ट वर्ग- तालु
त वर्ग- दंत(दाँत)
प वर्ग- ओष्ठ(होंठ)
जब हम प, फ, ब, भ, म पढ़ते है तो हमारे दोनों होंठ आपस में सट जाते है और बिना इस क्रियाविधि को अंजाम दिए हम प वर्ग पढ़ ही नहीं सकते है.
दरअसल, संस्कृत में इस देश का एक बड़ा अतीत(इतिहास) लिखा गया है. इसलिए संस्कृत की भाषायी समझ तो बेहद जरूरी है.
संस्कृत में जो विराट ह्रदय कवि हुए है उनको समझना सबके बेहतरी के लिए जरूरी है. वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भारवि, दण्डी और माघ अनुकरणीय है.
वंचित संस्कृत के पक्ष में काम करने की जरुरत है. इसकी वात्सल्यता हमारे ऊपर कर्ज है और हमें एक संबल प्रदान करती है. अतएव;
भाषासु मुख्या, मधुरा, दिव्या गीर्वाणभारती;
तस्माद्धि काव्यं मधुरम, तस्मादपि सुभाषितम्.