एक सभ्य समाज का मुखौटा कैसा होना चाहिए! डरावना. ये समाज बहुरूपिया है. इसे गिरगिट की तरह रंग बदलना आता है. अगर सामाजिकता इस बात के पक्ष में है कि किसी व्यक्ति को अपनी सोच विकसित करने से पहले ही धार्मिक बना दिया जाय तो ये अनुचित ही है.
क्या आपको नहीं लगता कि धर्म हम धारण नहीं करते बल्कि हमारे ऊपर थोपा जा रहा है. एक बच्चा मुसलमान के घर में पैदा होता है, उसके सामने कभी कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा जाता है कि उसे क्या बनना सही लगता है. ये सामाजिक मनमर्जिया बेवजह ही है. हमें धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है. मै एक हिन्दू हूं, इसका मतलब मै मुसलमान के घर पैदा नहीं हुआ और मुझे कुरान पढ़ने का मौका नहीं मिल सका. नहीं तो लाजमी सी बात है मै खुद को हिंदू कभी नहीं बना सकता. मै इस्लाम में उलझ जाता.
मै पैगम्बर मोहम्मद से बाहर नहीं निकल पाता. मै वेदव्यास के पुराणों को नहीं पढ़ पाता. मै हिन्दूओं से दूर रहता.
खैर, सबका धर्म अलग होता है. एक कप का धर्म यह होता है कि वो अपनी धारिता के हिसाब से उतना चाय या काफी धारण करे. राम ने मानवता धारण किया था. अगर राम भेदभाव करते और जातिवादी होते तो केवट को अपना मित्र क्यों बनाते, सबरी के जूठे बेर क्यों खाते. हम राम को तब तक ह्रदयंगम नहीं कर सकते, जब तक राम के ही मंदिर में ऊंच-नीच का फर्क बना है.
समाज सुधारक कबीर को सब अलापते है. रिसर्च करते है उनकी लाइनों पर लेकिन एक अनपढ़ आदमी का इशारा समझना नहीं चाहते.
औपचारिक शिक्षा के पेचीदगी में जो समाज उलझा है, वो कबीर की बातों पर मौन क्यों हो जाता है. कबीर यथार्थ को बेबाकी से कह देते थे समाज से निडर होकर.
परंपरा और दार्शनिकता एक बात नहीं होते. परंपरा हमें बांधती है, दर्शन हमे खोलता है. परंपरा की मौन स्वीकृति समाज को उजाड़ ना दे. दर्शन अपनाने की कवायद क्यों नहीं की जा रही है.
#ओजस