जिस देश से हमें पहचान मिलती है उस देश के इतिहास, सभ्यताओं के पुनर्जन्म, संस्कृतियों के आगमन और मानव विकास के तमाम अध्यायों से गुजरने के लिए सबसे पहले एक साहसिक और निष्पक्ष विचारपक्ष रखना होगा.
भारत के आधुनिक इतिहास को भलीभाँति समझने के लिए भारत के प्राचीन इतिहास, मध्यकालीन बदलावों और ज्यादतियों के हर पृष्ठ को एक विद्यार्थी की तरह विनम्र होकर समझना होगा.
हम किसी उपन्यास और कहानी को अपना गन्तव्य बनाकर कुछ कहने और लिखने के लिए आजाद नहीं है. हमारी वैचारिक आजादी उसी वक्त समाप्त हो जाती है जब हम खुद के ऊपर किसी वैचारिक संक्रमण को आरोपित कर लेते है. मैने रवीन्द्रनाथ के राष्ट्रवाद को चार बार पढ़ा. अगर हम राष्ट्रवाद पर लिखी गई तब की किताब को भी सिरहाने रख रहे है तो इसका मतलब यहीं निकला कि गुरूदेव की लिखी ये इतनी पुरानी किताब आज भी प्रासंगिक है.
आखिर क्या वजह है कि सौ साल पुरानी किताबें भी अपने अन्तर्वस्तु(Content) से आज के समाज को धिक्कार रही है.
आजादी के बाद इस देश के सामने कई चुनौतियां थी. उन चुनौतियों में सबसे प्रमुख और खतरनाक चुनौती यह थी कि इतनी विविधता और असमानता वाला देश कब तक एक साथ अपनी एकता और अखंडता को बनाये रख सकता है.
विदेशी साम्राज्यवादियों का एक ही लक्ष्य था कि इनको कलह और बटवारे की अनुगूंज में बांटकर हम निकल रहे है.
जब हमें उनके मनसूबों को सही साबित नहीं होने देना चाहिए था, उसी दौरान कुछ अलगाववादी नेता अलग-अलग देश की मांग करने लगे. इन मांगों को गलत ठहराने और असल राष्ट्रवाद की कवायद करने वाले जननेता भी इस दौरान मौजूद थे.
विभाजन हुआ, अब हम दो देश हो गए; भारत और पाकिस्तान.
इस बंटवारे ने पांच लाख जाने ले ली. क्या बंटवारा सौहार्द की स्थिति में नहीं करवाया जा सकता है! धर्म और जाति से हमारी पहचान जरुर होती है, मगर इस मुल्क ने हमें जो पहचान दे दी है वो अविकल्पनीय है.
देश को एकता के सूत्र में बांधने के लिए पटेल भगीरथ प्रयत्न किए थे. स्वायत्त रजवाड़ों को मिलाकर एक देश बना देना कोई आसान काम नहीं था.
साहित्य और समाज जबसे एक दूसरे से दूर हुए, देश अपनी दृष्टि खोता चला जा रहा है.
अब साहित्य उतना चलन में नहीं है जितना दो दशक पहले हुआ करता था. आधुनिक समाज साहित्य पढ़ने और फिल्म देखने में रूचि तो लेता है मगर फिल्म देखने को पहली प्राथमिकता देता है. फिल्में भी समाज को दिखाती और समझाती है मगर अब कला फिल्में कम बनती है तो उसमें समाज का एक विरूप चेहरा ही दिख पाता है. अभी हाल में आई फिल्म पिंक इस बीच बहुत ही जरूरी जान पड़ती है. दंगल भी देखी जानी चाहिए.
कवि और शायर किस दिशा में अपना पैर बढ़ा रहे है. कभी-कभी ये समझ से थोड़ा परे दिखाई पड़ता है. अगर कविता समाज को देखकर बिलखते हुए नहीं लिखी जा रही है तो इसे कविता का अवसानकाल कहा जाना चाहिए; निराला ने भी कविता के लिए कुछ ऐसा ही कहा था.
वियोगी होगा पहला कवि,
आह से उपजी होगी गान.
निकलकर आंखों से चुपचाप,
बही होगी कविता अनजान.
आजकल तो कुछ NGO भी समाज सुधारक नहीं जान पड़ते. संगठन गढ़े चलो, का मतलब ये नहीं होता कि जिस संगठन ने सरकारों के सामाजिक वंचितों का पक्ष लेना शुरू किया, वही सरकारों द्वारा दिए जा रहे पुरस्कारों को पाने तक ही अपना आंदोलन चलाये. संगठनकर्ताओं को इस बात को अपने मिशन में शामिल करना चाहिए कि क्या उसका सामाजिक मिशन अपने संगठन को एक बड़े स्तर का नाम देने के लिए बनाया गया था या फिर सामाजिक स्थितियों का सामना करने के लिए. इससे पहले ये भी तय करना होगा कि उनका मिशन कब तक जिंदा रखे जाने के लिए बनाया जा रहा है.
हम इंसान मूलतः स्वार्थी धर्म के होते है लेकिन भारत जैसा देश इस श्रेणी में नहीं हुआ करता था. उसके युवा परिस्थितिओं से झगड़ने का माद्दा रखने वाले होते थे. उन्हें राष्ट्रहित और राष्ट्रहित का मुखौटा बनने का अंतर पता था. मानसिक विकास में तो समय लगता है, देशहित की समझ होते ही हम देश के लिए मर मिटने का साहस या यूं कहे हेकड़ी बटोरने लगते थे.
एक बार फिर से हमें अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल करना होगा, जिससे इंसानियत बची रहे, जिससे मानवता शर्मसार ना हो.
मौजूदा वक़्त में राष्ट्रवाद की ईंट में दीमक(नुन्छी) लग रहा है. जो इसे हरेक पल क्षय कर रहा है. अगर राष्ट्रवाद के इस भव्य इमारत को बचाये रखना है तो इस मुल्क को फर्जी स्नेही दीमकों से साफ-सुथरे राष्ट्रवाद को दूर रखना होगा और इसके संरक्षण की जिम्मेदारी लेनी होगी.
#ओजसमंत्र
-अभिजीत पाठक