इस देश में बहुत सारी जगहों पर, कुछ संदर्भो में राष्ट्रवाद के प्रेम और भाव को समझने में भद्दी भूल हो रही है. हर रोज हमें राष्ट्रवाद का मुखौटा पहने दो चार राष्ट्रवादी दिखाई दे ही देते हैं. अब एक बड़ा सवाल मन में ये उठता है कि क्या अंग्रेजों ने जिस फूल डालो और राज्य करो की नीति से देश में अपना सरकार काबिज किया, वही आजाद भारत के नेता भी कर रहे है. हिंदू मुस्लिम विद्वेष दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है. एकता की जो कुछ गुंजाइशें बचीं थीं,. वो सौहार्द के नाम की अल्पांश भर ही बचीं होगी.
मै इतनी रात को लिखने क्यों बैठ गया. ये छोटा सवाल नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि मेरे इस पोस्ट की रीच बहुत ज्यादा है, और मै अपनी बातों से सौहार्द बढ़ा दूंगा. दरअसल ये पागलपन और सनक है. जिसे मै भी समझ नहीं पा रहा. कुछ बिषयों की अनर्गल बातें असह्य होने लगती है और मन विचलित होने लगता है. संवेदनशील लोग देश की बेहतरी के लिए जिस दिन कदम या कलम उठा लेंगे. सच्चे अर्थों में राष्ट्रवाद उसी दिन आ पाएगा.
राष्ट्रवाद जातिगत नहीं है. राष्ट्रवाद मजहबी नहीं है. ये तमाम मजहबी सिद्धांतों को ताक पर रख देता है जब राष्ट्रवाद को लगता है कि मेरे मुल्क या राष्ट्र का कोई बाशिंदा मुश्किल में है,.आफत में है., संकट में है.
अपने माध्यम की दुकान खोलकर आप राष्ट्रवादी बनने चलें है. बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं आप. राष्ट्रधर्म सामाजिक परिप्रेक्ष्य की कड़ी तक भी सीमित नहीं रहता.
राष्ट्रधर्म का जन्म देश के स्वरुप यानी परिस्थितियों से होता है. उसकी सीमाएं देश के ज्वलंत मुद्दों की परिधि को समेटता है.
कोई भी मुल्क बदहालियों और गरीबी के पलने में लोकतन्त्र को कैसे स्वीकारे. आप भारत के लोगों के अटूट बंधनों को तोड़कर राष्ट्रधर्म स्थापित कैसे कर पाएंगे.
राष्ट्रधर्म का भाव मानव-उन्नति का पहला पायदान है. राष्ट्रधर्म के आदर्श को जीवित रखने के लिए, आजादी के लिए कितने रणबांकुरों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया. आप अपने भाषणों की भूलभुलैया को राष्ट्रवाद और राष्ट्रधर्म कैसे कह सकते हैं.
– अभिजीत पाठक