तकदीर की चौखट पर जब एक सुस्त और उबाऊ जोगाड़कर्ताा बैठ जाए तो देरी तो होती ही है. अब संस्कृत के सुभाषित जिस जमाने में लिखे गए उस समय तो फेसबुक था ही नहीं. एक सुभाषित में लिखा गया है कि “विपति धैर्य अथाभ्युदये क्षमा” माने ये कि जब तकदीर का पलड़ा उछाल मारने लगे तो पेसेंस रख रखकर उसका भार बढ़ा देना चाहिए.
तब तक कोई फेसबुक पर मैसेंजर पर हाल चाल पूछने नहीं आए तब तो. लेकिन गांव के लोग इतने जिज्ञासु होते हैं कि अक्सर जियो वाली सिम वाली सेलफोन से पूछ ही देते हैं कि बेटा दिल्ली गए तो एतना दिन हो गया तुम आजतक पर कभी दिखे नहीं. मै धैर्यपूर्वक उनके बातों को सहता हूं और जवाब में बताता हूं कि अरे चचा वो टीवी में लिखने का काम सीख रहा हूं तो अभी थोड़ा समय लगेगा.
अब मान्यवर सुभाषित आप के भावार्थ का धैर्य भी कश्ममशाने लग गया होगा.
फेसबुक पर कई गांव के पुराने दोस्त चश्मा लगाकर अपनी तस्वीर किसी अच्छी लड़की के साथ खिंचवा कर डालते है तो विशालकाय ह्रदय की जिज्ञासा बढ़ जाती है. मै पूछ पड़ता हूं अरे मनोज कौन है बगल में; तो जवाब मिलता है कि मेरी बीबी है.
यूपी में सवर्ण परिवार में जन्म लेना आन्तरिक अनुभूतियों को सब्र पालने की सीख देने जैसा है. शादी 30 से पहले होती नहीं है. तब तक तो जवानी भी शीतगर्म हो जाती है.
अब सब्र पाल रहा हूं. अब तकदीर की रहगुजारी कर रहा हूं.देखता हूं हस्ताक्षर कब होता है.
बहुत खूब
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thanks
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