इस देश में पत्रकारिता संवाद की बुनावट का काम छोड़कर प्रसार और फैलाव के लिखास और छपास में उलझ कर गह गई है। उसे देश की बिगड़ी तस्वीर और हालातों से बहुत कम लेना-देना रह गया है।
आज की पत्रकारिता जिस राष्ट्रीय कवरेज की बात करती है, उसमें बहुत कुछ छूट जाता है।
इस बीच बापू के चंपारण सत्याग्रह का एक वाकया आज से मिलता दिखाई देता है। जिसमें बापू ने चम्पारण में नील की खेती और तीन कठिया का विरोध करने से पहले देश के सभी पत्रकारों को एक पत्र लिखा था और उन्होंने कहा था, कि कृपा कर के कोई भी संपादक इस संघर्ष को ना छापे, जरूरत की चीजें मै आपसे साझा कर लूंगा।
महात्मा गांधी जानते थे कि पत्रकारिता पर अंग्रेजी सरकार का एक खासा प्रभाव है और जब तक उनपर ये दबाव बना रहता है वे कभी सत्याग्रह की हकीकत साफ और स्पष्ट नहीं लिख सकेंगे।
उन्हें कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी पर अटूट विश्वास था और उन्हीं ने चम्पारण के सत्याग्रह को कवर किया था।
आज भी कुछ ऐसा ही परिदृश्य देश में है जब पत्रकारीय विवेचनाओं के पास इतनी चतुराई नहीं दिखती। सरकार और मीडिया समानान्तर चलने की बजाय एक दूसरे में घुलमिल जाते हैं।
आज टारगेटेड ऑडिएंस की बात होती है। बापू के चरखे से बड़ा और वृहत् मॉस इकट्ठा करने का आइडिया आजतक नहीं दिखा। लोगों ने स्वदेशी आंदोलन में खुद का बचत और स्टार्ट-अप अपने घर से शुरू कर दिया था। तब लोकतंत्र की ताकत नहीं थी। गुलाम भारत की स्थितियां निराशाजनक थी। फिर आज के हालात अंग्रेजियत से मिलते क्यों है।
-रवीश कुमार की स्पीच सुनने के बाद