बदलाव का विजन लेकर शहर आने वाले 2 नौजवान घर लौट रहे थें. उन्हें ताउम्र उम्मीद में रहने की आदत मजबूरन छोड़नी पड़ी. हाँ, ये सही नहीं था. मगर बहुत सारी चीजें सही ना होते हुए भी करनी पड़ती है. जिसे मजबूरी कहते हैं.
सैद्धांतिक बातों के इतर जब आप प्रायोगिक जीवन का शिलान्यास करने जाते हैं. आपके सपनों का महल नेस्तनाबूत होता दिखाई देता है.
गूगलकाल में सब कुछ तलाशा नहीं जा सकता. कुछ आदर्श बिषय आपको एकबारगी में नहीं मिल सकती.
पाबंदिया बहुत सारी है. वापस लौटने से पहले इन नौजवानों ने क्या हाथ-पैर नहीं मारा होगा. संघर्ष इंसान को और निखार देता है. ये कहने की बातें हैं.
दरअसल, आॅफिस से जब रूम पर आ रहा था तो दो अन्जान, अपरिचित नवयुवक मिले. ई-रिक्शा पर एक मेरे सामने और एक बगल में बैठा. मैने उनसे कुछ पूछा भी नहीं कि वे खुद ब खुद मुझसे संवाद करने लगे. एक ने कहा; अच्छा भैया आप बताओ हम लोग जब घर-बार, बाल-बच्चन को घर छोड़कर आए हैं तो क्यों आए हैं नोवेडा. नोएडा को वो नोएडा ही कह रहे थे. उनकी आंखों में हताशा का ज्वार उफन रहा था. अब मैने मुँह खोल ही दिया. मैने पूछा- अरे ये बताइए हुआ क्या, क्यों ये सब आप मुझसे कह रहे हैं.
उन्होनें कहा, भइया हम बिहार से हैं घर में पानी घुस गया है. बहुत नुकसान हो गया है. नोवेडा पैसा कमाने के लिए चले आए. अब इतनी मुसीबत में भी जहाँ काम करते हैं वो लोग कुछ मदद नहीं कर रहे. मैने कहा, आप जाइए घर बाद में कुछ और किजिएगा. घर जाने के लिए पैसे है कि नहीं. जवाब मिला; हैं. मै फिर से चुप हो गया.