वो दिन मै आज भी नहीं भूला और कैसे भूल जाऊं! एक संवेदनशील युवा के लिए बेहद जरूरी होता है कि वो संवेदनाओं को जिए. हां, संवेदनाएं नगरराज बनाती है. संवेदनशीलता हमें लोगों के आंसुओं और तकलीफ़ों को समझने देता है. एक दिन जो मेरी स्मृतियों में आज भी अंकित है, एक दिन जब बहुत कुछ स्थिर हो गया था; उस रोज बस एक सनक थी कि कुछ भी कर के अपने व्यक्तिवाद को मरने नहीं देना है.
एक छोटे से शहर आजमगढ़ से निकलकर दिल्ली की चकाचौंध में मशगुल होना, दिल्ली को पूरा देश समझ लेना मुझे गंवारा नहीं. मुझे लगा कि इन छोटे शहरों के साथ ज्यादती होगी. क्योंकि भारत का जनादेश या फिर सतही पत्रकारिता ना तो सिर्फ देश की राजधानी दिल्ली में बसती है और ना ही राज्यों की राजधानियों तक सीमित है.
भारत का जनवाद लाखों करोड़ों लोगों के जीवन से जुड़ा हुआ है. उन लोगों से जिनके शहर राजनीतिक पक्षधरता की वजह से सीधे तौर पर अर्थव्यवस्था से जुड़ ना सकें. जहां की प्रतिभाओं को आजादी के सात दशक बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझना पड़ता है या फिर ऐसी स्थितियां बन जाती हैं कि महानगरों की तरफ पलायन करना पड़ता है.
इसी बात को ध्यान में रखते हुए एक पत्रकारीय प्रयोग सराहनीय है. जिसमें स्थानीय खबरों को प्रमुखता दी जा रही है. मेरे इस छोटे से लेख का मकसद सिर्फ इतना है कि इस ऐतिहासिक कदम की वस्तुस्थिति से और लोग सबक लें.
टीवी युग जब धीरे-धीरे समाप्त होने लगेगी. तो अगला एरा डिजिटल का ही होगा. इस समय NYOOOZ की लोकल कवरेज एक नई दुनिया बसाएगी.
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