(बदलाव की उम्मीद के साथ)
हिंदी में शब्द शक्ति तीन तरह की होती है. अभिधा, लक्षणा और व्यंजना. वैसे तो गाँधी व्यंजना और दर्शन की लक्षणा के जरिए लिखे और पढ़े गए मगर मुझ जैसे को गाँधी अभिधा में ही ज्यादा अच्छे से समझ में आते हैं.
अब अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के अर्थ को शुरू में ही समझ लेते हैं जिससे कि आगे चलकर कोई परेशानी ना हो.
हिंदी साहित्यकारों ने वाक्य संरचना में तमाम तरह के प्रयोग किए. कुछ लोगों ने लिखा महात्मा गाँधी ने देश को आजादी दिलाई.
ये बात सबको बहुत ही आसानी से समझ में आ गई. तो इसे अभिधा शब्द शक्ति के उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है.
दूसरे लेखक ने लिखा गांधी ने देश की आजादी के लिए सत्य और अहिंसा से लड़ाई लड़ी. अब ऐसी बातें आसानी से समझ में आ ही जाती हैं मगर यहां सत्य और अहिंसा तो कोई हथियार है नहीं फिर तो इस बात को लक्षणा शब्द शक्ति के द्वारा समझा जा सकता है.
इसी प्रकार किसी और विद्वान ने लिख दिया कि गाँधी ने तो देश की आजादी के लिए भगीरथ प्रयत्न किए. अब इस बात को पूरी तरह से स्पष्ट करने के लिए पहले भगीरथ प्रयत्न को समझना पड़ेगा, फिर उसके बाद भगीरथ प्रयत्न भारत की आजादी के लिए गाँधी ने किए थे, इसको समझना होगा.
दरअसल, भगीरथ ने गंगा को धरती पर लाने के लिए हजारों साल तक तपस्या की थी. तो इस बात की व्यंजना में साफ तौर पर एक बात निकल कर आती है कि गाँधी ने देश की आजादी के लिए जो जनांदोलन छेड़ा वो किसी तपस्या से कमतर नहीं था और एक बात भगीरथ की तपस्या की मिसालें दी जाती हैं तो यहां व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग कहा जा सकता है.
अब आते हैं गाँधी का पीछा करने वाले लोगों के बारे में बात करने के लिए. मैंने अभिधा, लक्षणा और व्यंजना इसीलिए पहले बता दिया ताकि आप गाँधी का पीछा करने वाले लोगों को ‘मुखबिर’ तक ही सीमित ना कर दें.
गाँधी एशिया के महान व्यक्तित्वों में से एक हैं. इनका पीछा किया जाना चाहिए. इस हद तक पीछा किया जाना चाहिए कि उनके सपनों को पाला जा सके.
यहां पर गाँधी का पीछा करने का मतलब उनका अनुसरण करना है. अनुकरण करने वाले लोग सफाई करने से पहले गंदगी के राजनैतिक कारण बनते चले जा रहे हैं.
कुछ लोग तो गाँधी के पीछे पड़ गए हैं. वो बिना तथ्यों के ही बापू को कही सुनी बातों को आधार बनाकर अनाब सनाब कहते रहते हैं. कुछ गाँधी जी का गलत इस्तेमाल भी कर रहे हैं. गाँधी ने खादी को आत्मनिर्भर बनने के प्रतीक के रूप में रखा.
अलबत्ता हमारे नेता इसे पहनकर जनगद्दार बनने में कोई कोर कसर नहीं छोडे़ं. इसमें गाँधी का दोष नहीं है. दोष है साम्यवादी आंदोलन को रौंद कर पूंजी को देश की नियति से जोड़ना.
यहां अर्थभिन्नता पैदा होती है कि क्या पूंजी आंदोलन को थमा देगी. तो इसका जवाब है हां काॅर्पोरेट नेताओं को चुनाव का खर्च चंदे के रूप में देती है. नेता 10 फुट हवा में जुमले सुनाते हैं.
जमीन पर कोई विशेष बदलाव दिखाई नहीं देता तो गाँधी का पीछा करने वाले लोग प्रगतिशील सोच को दबाने की कोशिश कर रहे हैं. इन बहुरूपियों की पहचान सबको है.
उनको भी जो गाँधी का अनुसरण नहीं कर रहे बल्कि गाँधी का इस्तेमाल कर रहे हैं और वे भी जो जनता को सपने दिखाकर गाँधी से भी आगे निकल जाना चाहते है.
#ओजस