(बदलाव की उम्मीद के साथ)
आज मै भारतीय समाज के उस हिस्से की आलोचना करूंगा, जिन्हें ये नहीं पता कि अपने लाभ और हित के लिए वे कितना बड़ा और व्यापक स्तर पर नुकसान कर रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में नगर निगम चुनाव होने वाले है. बड़े धड़ल्ले से कागजों को बर्बाद किया जा रहा है. पैम्पलेट, बैनर और होर्डिंग से शहरों में कचड़ा किया जा रहा है. इन मौकापरस्त लोगों को नहीं पता है कि कागज के निर्माण में कितने पेड़ काट दिए जाते हैं. कितनी वनस्पतियां अपने वजूद को बनाए नहीं रख पाती हैं.
अपने अनुभव के मुताबिक मै यहां इस बात से आश्वस्त हूं कि हर दल में कुछ पढ़े-लिखे लोग जरूर होंगे. अगर वे इस लेख को पढ़ रहे हो तो ये सुनिश्चित करने की कोशिश करें कि इस भूल को अब नहीं दुहराएंगे.
नगर पालिका और नगर निगम का काम साफ-सफाई और शहर के बिगडे़ हालातों को सुधारने का होता है. ये जो लोग पैम्पलेट से चुनाव जीतने चले हैं वो अपने नेता को जाहिलों का सिरमौर बनाने से अलग कुछ नहीं कर रहे हैं.
मेरा इन कुपढ़ों से अपील है कि वे #Facebook पर चुनाव प्रचार करें. मै ये नहीं कह रहा कि लोगों को अपनी कार्ययोजना और बातें ना बताएं बल्कि एक नए तरह के प्रयोग से बहुत कुछ बदल सकता है.
वैसे भी इस देश में जितना प्रचार हो रहा है उतना ज़मीनी स्तर पर काम होता तो त्रासदी के हालात दफन हो जाते. इस मुल्क में हिंदू तब तक हिंदू बना रहता है जब तक उसका कोई करीबी या फिर जाति और धर्म का आदमी चुनाव में नामांकन नहीं करवा लेता.
जिस समय वो नामांकन करवा लेता है सबसे पहले तो वो उस प्रत्याशी में अपना व्यक्तिगत लाभ तलाशने की कोशिश करता है और फिर उसके नाम के नारे लगाता है. वो हिंदू कहां रह जाता है.
?
अगर वो हिंदू या मुस्लिम या जो भी पहचान उसके नाज की वजह बनती है उसके आदर्शों और विचारों के नींव में जाकर स्वयं से एक सवाल करता कि क्या इस हिंदू या मुस्लिम या और किसी प्रत्याशी के लिए उन वनस्पतियों को पैम्पलेट की शक्ल में ढालकर रास्तों में बिखेर देना हिंदुत्व, इस्लाम या फिर विज्ञान धर्म है जैसा इस उत्तर आधुनिक काल में हो रहा है.
एक अपील पढ़े लिखे युवाओं से कि कम से कम वे हिम्मत जुटाकर अपने किसी भी सम्प्रदाय के करीबी प्रत्याशी को कागज की कीमत बताए. कुल मिलाकर वनस्पतियां रौंदी ना जाए.
#ओजस
Very honest and nicely articulated post !
Good job 🙂
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thanks a lot ji
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