[बदलाव की उम्मीद के साथ]
जैसे शारीरिक संतुलन के लिए व्यायाम और पौष्टिक खानपान की जरुरत होती है. ठीक उसी प्रकार मानसिक संतुलन के लिए किताबें जरूरी होती हैं. बहुत सारी किताबें हमें एक विचारधारा को अपनाने के लिए फुंसलाती हैं. साम का दांव राजनैतिक सामंजस्य के पुल बांधने का काम करती हैं.
कोई भी किताब आदर्श व्यवस्था की बात नहीं करती है. विज्ञान की मैगजीन में तकनीकी पर और काम करने को आआकर्षक ढंग से पेश किया जाता है तो वहीं किसी पर्यावरणविद की प्रकृति को लेकर चिंता वैज्ञानिक आविष्कारों को हाशिए पर रख देती है. यही हालत तमाम तरह के विचारों की भी है.
दरअसल विचारों के बहुत सारे ढाँचें है. एक विचारधारा दूसरे से मेल नहीं खाती. कई बार राजनीति में दो प्रतिस्पर्धी और नफ़रत का मंजर नफस-नफस लेकर सुलगने वाले लोग मौकापरस्त बन दामन चोली की तरह एक साथ हो गए. तो कई बार क्रान्ति की एक कोख के दो सहोदर समझौता करके अलग-थलग हो गए.
राजनैतिक वादे किसी साम से कम नहीं है. आजकल तो इसके घटनाक्रमों में इजाफा भी हुआ है. इस कड़ी में ‘सोनिया गाँधी’ ही एकमात्र ऐसी भारतीय नेता कही जा सकती हैं जिन्होंने देश की जनता को कभी तथ्यहीन बातों को बताकर बरगलाने की कोशिश नहीं की.
सोनिया गांधी उस प्रधानमंत्री की पत्नी हैं, जिन्होंने सपने देखकर सच करते रहने की हिंदुस्तान को लत लगा दी थी. सोनिया के साथ इतने निम्नस्तरीय दुष्प्रचार हुए जिससे मन आहत होता है.
खैर, मै उस देश के नागरिकों को संस्कार सीखाने की कोशिश क्यों कर रहा हूं, जिनमें संवेदनहीनता का दिन ब दिन जहर घुल रहा है. फुंसलाने वाले नेता; मनमोहन सिंह के बारे में अपनी नियति साफ रखने की कोशिश करे नहीं तो कब सब कुछ बदरंग हो जाएगा. पता भी नहीं चलेगा.
मनमोहन सिंह कम बोलते हैं क्योंकि वो कौवे नहीं है. वो अब तक के प्रधानमंत्रियों में आर्थिक सुधारों के मामले में सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री हैं.
क्योंकि Speech is silver and Silence is gold. इसी के साथ बस एक लाइन में इन सारी बातों को समेटना चाहूंगा कि मनमोहन सिंह ने जनता को कभी फुंसलाया नहीं, बरगलाया नहीं और ना ही जुमला सुनाया.
वे भारतीय अर्थव्यवस्था के कायाकल्प के इकलौते राजमिस्त्री-प्रधानमंत्री हैं. उन्होनें कभी भारत के लोगो के साथ साम स्थापित नहीं किया.
#ओजस