जिस देश में 86 फीसदी निजी संपत्ति सोने और जमीन के रूप में हो और महज 14 फीसदी नकदी ही वित्तीय निवेश में आ पाई हो, वहां आर्थिक सुधार(नोटबंदी) भ्रष्टाचार का भला क्या बिगाड़ सकती है।
अब इस फेहरिस्त को समझना होगा कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रयोग कहीं जाया तो नहीं चला गया। दरअसल, मीडिया में इन दिनों जिस भक्ति की बात हो रही है वे भक्त भक्ति की सार्थकता को समझ नहीं पाए हैं।
इसको अगर वैज्ञानिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो सरकारों के प्रति ये चरम प्रेम अंधभक्ति कही जा सकती है। खोदा पहाड़ और निकली चुहिया, यहां सटीक बैठती है। सबसे पहले तो ये तय करना होगा कि काला धन अभी भी कई रूपों में अपने वजूद को बचाए रखा है। कालेधन को इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि बहुत सारी बेनामी संपत्ति महानगरों से लेकर छोटे शहरों में हैं।
मिसाल के रूप में कई बार ऐसा होता है कि सरकारी जमीनों को लोगों को पट्टे पर बेंच दिया जाता है और खरीददार उस भूखण्ड को अपने हिसाब से इस्तेमाल करता है। जिस शहर में लोगों को एक कमरे के लिए बेतहाशा पैसे खर्चाने पड़ रहे हो, वहीं पर कुछ लोगों के लिए कई सौ एकड़ जमीन आसानी से मिल रही हैं, ये भ्रष्टाचार नहीं है तो और क्या है?
प्रदेश सरकारों को भूमाफियाओं पर नियंत्रण बरतने की जरूरत है और उससे भी पहले देश की आर्थिक हकीकत को अन्य नजरिए से भी देखना होगा, सावधान! इस बीच सरकार की और नोटबंदी समेत जीएसटी की मदांधता छोड़नी होगी।