आजकल लिविंग मीडिया से लेकर डिजिटल मीडिया तक को ‘राष्ट्रवाद’ को साबित करने की जरुरत पड़ने लगी है. खासकर टीवी ने तो सारी हदें पार कर दी हैं. ये कोशिशें स्वाभाविक हैं या बनावटी, इस पर चर्चा की जानी चाहिए.
राष्ट्रवाद पर जब टैगोर अपनी किताब लिखते हैं तो वो दुनिया के सभी देशों के राष्ट्रवाद की समझ प्रस्तुत करते हैं और फिर ये उद्घोषणा करते हैं कि राष्ट्रवाद किन आदर्शों और विरासतों का निचोड़ है.
जब हम अपने मुल्क के लिए अपनी पहचान, प्रतिष्ठा और स्वाभिमान दांव पर लगाने का माद्दा रखने के योग्य हो जाए तो राष्ट्रवाद की बात करना स्वाभाविक कही जाएगी.
राष्ट्रवाद ‘राष्ट्रीय आदर्शवाद’ तक ही सीमित नहीं है. इसका दायरा हमारी समझ से ज्यादा व्यापक है.
पत्रकारीय विवेचनाओ में अब कमतर इस बात की चिंता होती होगी कि राष्ट्रवाद बनाम टीआरपी में किसे प्राथमिकता देनी है.
राष्ट्रवाद कोई एजेंडा नहीं है. जो हर रोज टीवी पर चल रहे ड्रैमेटिकल खबरों की अगुवाई करती दिखाई दे रही है.
राष्ट्रवादी न्यूज़ एंकरों की हालत बाग़ी नेताओ की तरह होती जा रही है, जो एक संस्थान के नहीं हो सके वो देश के कैसे होंगे? उन्हें अपने वजूद के स्थापत्य पर काम करने की जरुरत है.