पद्मावती विवाद पर अनावश्यक बहस हो रही है. इस बिषय पर उत्तर प्रदेश में दोयम दर्जे की राजनीति होने लगी है. इससे साबित क्या होगा और इसका परिणाम क्या निकलेगा, इस बात से किसी को कोई लेना देना नहीं है. अपूर्णा यादव को घूमर पर डांस करने का मन होने लगता है तो सीएम योगी को इस मुद्दे पर भंसाली का दोष सिर काटने वालों जैसा समझ में आने लगता है.
अब ये मुद्दा प्रतिस्पर्धा का रूप ले चुका है. साम्प्रदायिक बनाम सेकुलर. हिंदू बनाम मुसलमान और अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का. सब कयासों, अटकलों और सुनी सुनाई बातों पर बेतुकी बातें कर रहे हैं.
ऐसे ही मुद्दों के परिणाम में भारत का अतीत खून से लतपथ है. कर्फ्यू और हिंसा के वो दौर भारतीय जनता कैसे भूल जाती है जब छोटी गलतफहमियों ने कत्लेआम करवाया था.
हमें सौहार्द से रहना होगा. अपने आत्मसम्मान के लिए किसी सम्प्रदाय को नासमझी दिखाने की कोई जरुरत नहीं. अपर्णा घूमर पर इसलिए नाचने लगी हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यूपी का सेकुलर खेमा इस मुद्दे के चलते उनके साथ आ जाए. सीएम योगी भी बिना किसी तथ्य के भंसाली की तुलना हिंसा पर उतारू लोगों से करने लगे हैं.
आप सोच के देखिए, मध्यकाल के जिस अलाउद्दीन खिलजी को अल्पसंख्यक अपना मानने लगे हैं वो उन्हीं के स्वदेशी लोगों पर तमाम तरह की लगानें वसूलता था. जो करणी सेना आज पूरे भारत में एकजुट होने का फलसफा गढ़ रही है काश वो उस समय महाराजा रतन जी के साथ रही होती. पद्मावती को जौहर करना ही नहीं पड़ता.
आखिर में बस यही अपील करना चाहता हूं कि सबके पास अपनी समझ है. इसका इस्तेमाल करने की जरुरत है. इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब हम आपस में द्वेष और छिटपुट और बंटे-बंटे से रहे हैं, इसका फायदा हमारे प्रतिद्वंदियों ने उठाया है. ये चूक हमें दुहरानी नहीं चाहिए. मुसलमान भाइयों अगर आप ही का छोटा भाई हिंदू पद्मावती फिल्म में अपनी रानी पद्मिनी के अपमान को देखने की नासमझी कर रहा है तो भी आपको कोई हक नहीं बनता कि आप उसे परेशान करें और इसी के साथ जिन हिंदुओं का आत्मसम्मान अचानक से जाग उठा है वो अलाउद्दीन खिलजी और भारतीय मुसलमानों को एक ना समझें. (बदलाव की उम्मीद के साथ)