चुनाव में धार्मिक पनाह लेना उचित नहीं है

(बदलाव की उम्मीद के साथ)

भारतीय राजनीति का ये बहुत बड़ा विकार रहा है कि चुनावी रणनीतियों में धर्म का आश्रय लिया जाता है और जनता से समर्थन मांगने की कोशिश की जाती हैं.

विकास कार्यक्रम और सर्वांगीण विकास की बातें नहीं होती और धर्म आधारित राजनीति कर जनगद्दार राजनेता अपना अस्तित्व पाकर वोटबैंक तैयार करने लगते हैं.

कोई भी व्यक्ति किसी धर्म को गलत नहीं ठहरा सकता पर उस परिप्रेक्ष्य में धार्मिक नसीहतें अनुपयोगी हैं जब किसी राष्ट्र के भीतर गरीबी, कुपोषण, बदहाली, भ्रष्टाचार और अपराध अपनी गति छोड़ने के लिए लोकतन्त्र के ब्रेकर को तोड़ चुके हो.

भारत जैसा राष्ट्र जिसकी प्राच्य संस्कृति हमेशा अन्य देशों के लिए उदाहरण बनी हो, वहां राजनीति को धर्म की पनाह पाने की कोशिश को संक्रमण ही कह सकते है.

क्या भारतीय राजनीति एक आदर्शवाद नहीं स्थापित कर सकती! जो सारे धर्मों के लिए हो. आजादी के बाद राजनीतिक पार्टियों ने कभी भी पूरे देश को संगठित नहीं किया. सिर्फ और सिर्फ इसको बांटने के लिए खाद पानी जुटाते रहे.

राष्ट्रनिर्माण की चुनौतियों को बार-बार ताक पर रख दिया गया और बेबस जनता दो जून की रोटी पाने के लिए बिलबिलाती रही. ग्राम पंचायत से लेकर कैबिनेट तक इन चुनौतियों से समझौते करते रहे.

जिस देश में एक दिन में सैकड़ों बच्चे स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही की वजह से दम तोड़ देते हो. वहां स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतरी के दावे किसी और प्रदेश के चुनावों में करना सीधे तौर पर धोखाधड़ी है. केवल इस आधार पर वोट मांगना की मै हिंदू हूं और तुम भी हिंदू हो या मुसलमान का भला मुसलमान ही करेगा अनुचित है.

जिस देश में प्रधानमंत्री तक को धर्म जाति आधारित राजनीति का आश्रय लेना पड़ रहा हो उसका कल कैसे निर्धारित किया जाए!

धर्म की छत्रछाया में अपने हुनर को अप्लाई करने वाली पार्टियां जनता को एक बार फिर बरगलाने की नाकाबिले बर्दाश्त कोशिशें करने में जुट गई है.

भारत विनोवा, बापू, नेताजी और कलाम के सपने को किस आधार पर पालने की गफलत में चूर है!
#ओजस

Published by Abhijit Pathak

I am Abhijit Pathak, My hometown is Azamgarh(U.P.). In 2010 ,I join a N.G.O (ASTITVA).

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