हिंदी साहित्य को उपवन कहना उचित नहीं होगा. नाट्यशास्त्र में विभाव, अनुभाव और संचारी भाव की शुरूआत किसी साफ-सुथरी बगियां में कैसे ढूंढी जा सकती है.
मेरा मानना है कि साहित्य का अंचल, यहां तक की भारतीय संस्कृति भी जंगली है.
भारतीय समाज में तकलीफ़, लाचारी और बदहाली को लिखने वाले लेखक अपने आप में हिंदी साहित्य के बगीचे तक सिमटे कैसे कहे जा सकते हैं! उनका दायरा तो उस जंगल की ओर रूख करने वाला है जहां जाना दुर्गम सा लगता हो.
संकल्पों की धुन किसको है! कौन संकल्पों को चुनौतीपूर्ण दौर में आगे बढ़ाते हुए अपनी जिंदगी को विलासिता से अलग रखने के सपने पालता होगा. संकल्प छोड़कर सब विकल्पों की तरफ भागने लगते हैं.
मुझे लगता है कि कुछेक पहरूए विकल्पों को छोड़ संकल्पों को हाशिए से उठाकर हिंदी साहित्य के उपवन की लतर को तोड़ जंगल की शक्ल में व्यवस्थित समाज की कठिनाईयों को संकल्प देते हैं और मूर्धन्य बन जाते हैं.
हिंदी साहित्य में संकल्प की धुन में जंगल के यथार्थ को समझना और उसका आभास करना दूधनाथ सिंह के साहित्य से इतर कैसे हो सकता!
परम धन्य है कलमवीर तेरी काया,
अपने उजियारे स्वप्न हमारी आंखों में भर दे.
#ओजस