एक भारतीय युवा होने के नाते अपने दायित्व का दायरा पहले से ज्यादा विकसित करना और राष्ट्र धर्म की कसौटियों पर खरा उतरना महत्वपूर्ण विषय हैं. तमाम मनोवैज्ञानिकों ने मानव व्यवहार के लिहाज से मेरे उम्र के लोगों को विद्रोही और गैर रचनात्मक होने का अंदेशा लगाया है. परिपक्व होने की कड़ी में हम नौजवान कुछ सतही भूल कर ही बैठते हैं. इस बाबत सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि हमारे ही क्षेत्र में कार्यरत उम्रदराज लोगों से ही विषय के बारीकियों और लचीलेपन की समझ विकसित की जाए.
विचार अगर प्रायोगिक नहीं हैं तो उनका प्रसारण नहीं करना चाहिए क्योंकि आधुनिक समय में और खास तौर पर सोशल मीडियम के दोषों के बारे में जानने के बाद भी अस्वाभाविक बातें सही नहीं होती. इस संदर्भ में बहुत सारे लोगों का प्रत्युत्तर होता है कि अच्छे विषयवस्तु पर ट्रैफिक कहां आते हैं. तो मेरा व्यक्तिगत मानना है कि इस संक्रमण के दौर में इन मीडिया विकारों का भंडाफोड़ ही इसकी मुखालफत का सही तरीका हो सकता है.
एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते भी हमें भारतीय समाज को बांटने की मनसा से कोई भी काम नहीं करना चाहिए. मैंने पाया है कि फेसबुक समेत तमाम सोशल मीडियम पर भारतीय नागरिक एडिटेड वीडियो या अप्रमाणिक कंटेंट को धड़ल्ले से फैलाते हैं और इसका अंजाम मानसिक द्वेष से शुरू होकर दंगे फसाद तक में बदल जाता है.
लोकतंत्र का बदगुमान लेकर ढोने वाले लोग और राजनीतिक आस्थाओं से ओतप्रोत महानुभाव सबसे पहले तो इस बात का स्पष्टीकरण करें कि वे बिना तथ्य के ही बातचीत नहीं करेंगे और पूरी बात जाने बगैर ही ये ना कह दें कि मीडिया बिकी हुई है. क्योंकि सूचना का जो भंडारण आपके टीवी, वेबसाइट, रेडियो और अखबार के माध्यम से पहुंच रहा है उसमें आज भी बहुत ही ईमानदार लोग काम कर रहे हैं. कुछेक लोगों को पूरे कहने के कयासों से ऊपर उठने की जरूरत है.
ये सारी बातें आज बताने की जुर्रत इसलिए पड़ गई क्योंकि पिछले एक सालों में मेरे कमेंट बॉक्स में ऐसे ही कमेंट आए और कुछ पुराने दोस्त मैसेंजर या व्हाट्सएप पर तथ्यहीन बातों को साझा करते दिखे.
सबसे भयावह बात ये है कि पढ़ा लिखा तबका भी इस मकड़जाल में फंसा हुआ है.