विश्वास और उम्मीद का जो डोर मैंने आप लोगों से तमाम छोटी-छोटी कोशिशों के बाद जोड़ा है, आपके और हमारे बीच जो तार जुड़ा है वो बदस्तूर जारी रहेगा.
वैसे भी आजकल हिम्मतवर लेखक कहां हैं? सब डरे सहमे हैं. कोई कार्पोरेट की गुलामी कर रहा है तो कई पूंजीपतियों की जी हजूरी. भारत में हर छोटे जिले में आठ-दस लेखक ऐसे होंगे, जिन्हें कोई नहीं जानता. ऐसे लेखक ही सतही हैं जो दुश्वारियों में जी तो रहे हैं लेकिन धारा के खिलाफ लड़ाई जारी रखकर.
विद्वान लोगों की कद्र ये व्यवस्था ना तो पहले करता था और ना ही आज करता है. सबको अपनी दुकान चलानी है, चाहे उस दुकान का अस्तित्व ही क्यों ना टिकाऊ और जर्जर मकान में रखा गया हो.
चलिए, छोड़िए इससे बहुत कुछ बदल नहीं जाएगा. और ना ही हमारे जमीनी और ईमानदार होने से पूरा लिंकेज सुधारा जा सकता है.
मै तो बस इतना जान पाया हूं कि ईमानदार लोग या तो अपने स्वाभिमान और जमीर को बचाने के एवज में किसी किसान के रूप में मर जाता है, कहीं बेबसी झेलते-झेलते मर जाता है. कहीं पर दूसरों को जमीन से आसमान पर पहुंचाते जिंदगी गुजार देता है.
मै जब कल नोएडा से अपने गांव आया, तो मैंने देखा कि जिस आदमी ने हजारों लोगों का घर बनाया या फिर उसके निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा, उसके पास आज भी कोई मकान नहीं है. वो किसी तरह अपने पुराने पैतृक मकान में गुजारा कर रहा है.
इस सिस्टम में शामिल हो जाने के बाद तो जनप्रतिनिधियों का रवैया ही बदल जाता है. विधायक से लेकर प्रधानमंत्री तक की यही दशा है. जनता को ये मोहरे की तरह इस्तेमाल करते हैं और मौकापरस्ती का आलम ऐसा है कि फिर तो आपकी सुरक्षा और नागरिक जीवन में सुधार का कोई महत्वपूर्ण काम इन्हें दिखता ही नहीं. गांवों में सड़क व्यवस्था की हालत खस्ता है.
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