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(28 अप्रैल की डायरी से)
कोई उपभोक्ता अगर उत्पाद के मूल्य से असंतुष्ट है तो ये किसी भी देश के लिए सामान्य स्थिति नहीं हो सकती. खासकर तब जब एक ईमानदार किसान डीजल खरीदकर टंकी पर अपने असंतोष को किसी अपरिचित से बताने लगे तब तो बिल्कुल भी नहीं.
बाइक में पेट्रोल लेने गया. तभी एक आदमी अपने ट्रैक्टर में तेल लेने के बाद खुद ही बड़बड़ाने लगा. शायद वो सरकार के खिलाफ रोष जाहिर करने की कोशिश कर रहा था. मै उसकी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था. उन्होंने मुझसे कहा कि-
‘बेटा आप बताओ कि हम खेती कैसे करें. लागत मूल्य दिन बाद दिन बढ़ रहा है. डीजल का दाम 70 पहुंचने वाला है. अब हम अपना धैर्य कब तक बनाए रखे. जुताई करवाने की हिम्मत नहीं पड़ती अब’.
मेरे पास उसे ढाढस बनाने के लिए उपयुक्त शब्दों की कमी महसूस हो रही थी. फिर भी मैंने कहा कि खेती करना छोड़िएगा नहीं. उसकी आँखों में इतना तेज था कि मै आगे संवाद करने की योग्यता जारी नहीं रख सकता था.
अबकी बार सरकार की मुखालफत करने का उसका भाषायी तरीका बर्बर हो उठा, उसने कहा कि ऐसी सरकार को फूंक देना चाहिए. हमने अंग्रेजी दौर में भी इतनी तकलीफ़ नहीं झेली. मैं और चुप हो गया.
मैंने बाइक स्टार्ट किया और पूरे रास्ते भर ये सोचता रहा कि क्या वाकई में अंग्रेजियत इस लोकतंत्र में भी जिंदा है.