7 जुलाई की डायरी से

मुझे लगता है कि फायदे की फ़ेहरिस्त में राजनीति की रहगुजारी करने से बेहतर है कि पब्लिक सर्विस कर टीवी पत्रकारिता के अवसानकाल में भी नवजागरणकाल की ही तरह सामाजिक बदलाव के नए पुल बनाए जा सकते हैं. टीवी पत्रकारिता आजकल जिस प्रकार डिजिटल में तब्दील होती जा रही है, उससे साफ होता है कि आने वाले समय में वो अपने साख को दांव पर लगा देगी. मैं ये नहीं कहता कि ये प्रयोग सही नहीं है लेकिन आप पूरा इतिहास उठा कर देख लीजिए, कभी भी अगर नए अनुप्रयोगों ने बाजार में जगह बनाई है तो क्लासिक का धंधा मंदा पड़ा ही है.

आने वाले 10 सालों में टीवी देखने वालों की संख्या में भारी गिरावट आने के कयास लगाए जा रहे हैं. इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए टीवी मीडियान में कार्यरत लोग धड़ल्ले से सोशल मीडिया समेत #YouTube पर तमाम चैनल्स बना रहे हैं. चलिए टीवी का तिलिस्म टूटा तो सही.

दरअसल, टीवी का सपना दिखाकर और डिप्लोमा कोर्सेस करवाकर भारी संख्या में पत्रकारिता के विद्यार्थियों को रोड पर आने की नौबत इसी टीवी की देन है. बहुत सारे संस्थान इस काम को बड़ी सफाई के साथ अंजाम देते हैं. प्लेसमेंट के नाम पर किसी छोटे मोटे चैनल में भेजकर खूब शोषण होता है. इसकी ना तो कोई जवाबदेही मांगता और ना ही पत्रकारिता विद्यार्थियों को प्रायश्चित्त ही करने देती है. मै समझता हूँ कि आधुनिक काल का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि वो रचनात्मक लेखन को भी मौके और दिशा देने का काम सही तरीके से नहीं कर पा रही है.

अगर आप किसी सीनियर या मीडिया मेंटर को फोन करके जाॅब करने का आग्रह करेंगे तो उसे सिफ़ारिश समझ लिया जाता है. अगर आप एक संवेदनशील लेखक हैं और मीडिया की दुनियादारी का ककहरा नहीं पढ़ा है तो निश्चित तौर पर अपने आज्ञाकारी प्रवृत्ति को आग लगा दीजिए.

मान लीजिए, आप अपने ही किसी पत्रकारिता के शिक्षक पर अटूट विश्वास करते हो और आप उसे फोन करके पूछे कि सर, कहीं पर कोई अपार्चुनिटी है क्या? उधर से जवाब आए कि नहीं. एक महीने बाद एक तीसरे आदमी से पता चले कि उसी संस्थान में भारी संख्या में लोगों को लिया गया है तो आप बताइए कि देवत्व का वो मुखौटा धम्म से नीचे नहीं गिर जाएगा.

स्नेह और समर्पण का कोई मनोविज्ञान नहीं होता. लेकिन जब असलियत का पता चलता है तो पूरी दुनिया छलिया लगने लगती है. मैंने जो कुछ भी सीखा है, वो मेरे अथक अध्ययन और शिक्षकों के सानिध्य रहकर ही सीखा है. बकौल तुलसी-
“हरि गुरू निंदक दादुर होई”

अगर मैंने अंजाने में ईश्वर के समान अपने शिक्षकोंं की निंदा अपनी बात रखने में की है, तो गोस्वामी तुलसीदास के इस पद के मुताबिक अगले जन्म में मुझे मेंढ़क बनने में कोई गुरेज नहीं होगा.
#ओजस

Published by Abhijit Pathak

I am Abhijit Pathak, My hometown is Azamgarh(U.P.). In 2010 ,I join a N.G.O (ASTITVA).

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