अगस्त बीतने वाला है और आगे सितंबर के महीने में मैंने सोचा है कि फोटोवाद, मीडियानामा, भारतीय साहित्यकार, WordPress.com पर ब्लाॅग और हिंदी कविता और मेरा प्रयास के अलावा भी एक रचनात्मक कार्य शुरु कर दूं. बहुत लोगों ने व्हाट्सऐप और मैसेंजर के ज़रिए पूछा है कि #अर्पण से लिखना छोड़ दिया क्या? एकाध लोगों ने तो ये भी कहा कि सारी सनक उतर गई तुम्हारी. मेरे पास जवाब तो नहीं है लेकिन बहुत सारे लोग गलतफहमी में हैं. मैं मनोभावों को सहजता से जीते हुए ही कविताएं लिखता हूं. वो सहज होती हैं और ईमानदार भी. आपने अर्पण मूवी देखी है, तो समझ लीजिए कि अपनी रूमानियत को इस फिल्म में झांका और उसके लिए माला पिरो दी. अचानक इस विषय से कविता ना लिखना एक बहुत बड़े व्यक्तिगत घटनाक्रम के बाद संभव हो सका है, खैर, चंद लोग जो मेरी कविताएं पढ़ते हैं, उनके लिए #नेह भी उतना ही सजीव साबित होगा.
अक्सर दुनिया उजड़ जाती है. प्रेम का एक दायरा होता है, जिसके बाद ये उबाऊ बनता चला जाता है. आदमी चकनाचूर हो जाता है और बेमतलब की बातें करने लगता है. वो भावनातिरेक के ज्वार में बहता चला जाता है. तकलीफ़ उसे इतनी होती है, जितनी कि बर्दाश्त ना हो सके. वो ख्वाबों की कल्पना में एक आशियाना बना चुका होता है, जिसकी नींव धरती पर नहीं होती. ख्वाबों से बाहर आकर जब वो गिरता है तो वक्त को कोसने लगता है. खुद की क्षमताओं पर सवाल खड़ा कर देता है. खामोश होता जाता है और किसी के भी सामने खुश रहने का ढोंग करता नजर आता है. इससे उबरना बेहद जरूरी होता है.
क्या मंजिले और भी नहीं होती. या दुनिया में मुकम्मल इश्क़ के अलावा कोई काम बचा ही नहीं है. तो फिर खुद को गर्त में ढकेलने से बेहतर होगा कि एक सीढ़ी बनाई जाए, जहां से इस जीवन-तमस को एक नवजीवन हासिल करने का जरिया मिल सके.
इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं है कि जिस आरजू का अंत हुआ, उसकी परिपाटी जीवन अंत होने से कमतर आंकी नहीं गई. लेकिन इस तरह घुट घुटकर मरने से समस्याओं का अंत कैसे संभव है.
मसलन, मैं जो नया काम शुरू करने जा रहा हूं. उसका मकसद ये है कि दुनिया के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत की जो स्क्रिप्ट वेदव्यास ने लिखी है, उसकी शब्दशक्तियों और छंदों का विकेंद्रीकरण क्या है और उसका हमेशा प्रासंगिक रहना क्यों जरूरी है. ये बताया जाए, अपने सुझाव कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं.
#ओजस
Intzar rhega Apki new post Ka..good luck !!
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थैंक्यू दीप्तिजी
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