घर की आज बहुत याद आ रही है. गांव के लिए जो सपने मैंने अपनी आंखों में संजोये हैं, उन्हें पूरा करने के लिए क्या करना होगा. घर के प्रति बहुत सारी जिम्मेदारियां भी बनती है. इसे जिम्मेदारी ना कहकर दायित्व कहा जाए तो ज्यादा अच्छा होगा. घर से जब नोएडा आ रहा था; तो बिचले बाबा की बड़ी चिंता हुई. आज वो भले बंटवारे के बाद हमारे साथ नहीं रहते लेकिन बचपन का एक लंबा और खास अरसा हमने उन्हीं के संरक्षण में बिताया है. कुछ साल बाद बिचले बाबा 90 के हो जाएंगे. उनसे जो यादें लिपटी हैं, उनको याद कर लेना बेहद जरूरी है.
गांव में तीन जगह खेत है, जो घर से सबसे दूर है वहां की जमीन थोड़ी ऊसर है. लेकिन धान की खेती अच्छी होती है. उस जगह को ‘सुदिया’ कहा जाता है. घर से तकरीबन एक किमी दूर है सुदिया. दूसरा घर से 400 मीटर दूर है और वहाँ बगीचा भी है तो उसके इर्द-गिर्द के खेत को बगीचे वाला खेत कहाँ जाता है. तीसरा घर की आबादी से सटा हुआ है.
बिचले बाबा तनिक तुनकमिज़ाज़ हैं. जब गुस्सा होते हैं तो किसी की नहीं सुनते लेकिन जब प्यार जताते हैं तो बड़े लाड से उनके मुंह से निकलता है ‘गदहा कही क’ हमके सिखइबे’. उनकी स्मृति इतनी तेज है कि 60 साल पहले का वाकया जब सुनाते हैं तो पूरे बैठक में केवल उनकी आवाजें ही गूंजती है. उनके जिगरी दोस्त थे स्वर्गीय श्री कमला राय. गांव वाले उन्हें मुखिया बाबा बुलाते हैं. मुखिया बाबा बिचले बाबा को ‘परधान’ कहते थे. मुखिया बाबा जब भी अपने खेत का निरीक्षण करने आते, बिचले बाबा से मिलते जरूर थे. कांग्रेस के नेता मधुसूदन त्रिपाठी भी बिचले बाबा का बहुत आदर करते हैं.
हमारे पूरे परिवार में 9 बुआ लोग हैं. बाबा कुछ लोगों को नाम से, कुछ को बेटा कहकर बुलाते हैं. जो पापा की बुआ लोग हैं, उनमें से दो लोग अब इस दुनिया में नहीं है. दोनों बुआ बिचले बाबा से बड़ी थी, उनकी दो छोटी बहनें हैं, उन लोगों का नाम श्रीमती दुलारी और श्रीमती मुराती है. बाबा उन लोगों को प्यार से दुल्लर और मूरत बुलाते हैं. पापा को जनार्दन कहते हैं और चाचा को अरुणकांत; कभी-कभी चाचा को बेटा भी. ये तब होता है, जब कोई बात समझा रहे होते हैं.
बिचले बाबा हमारे साथ नहीं रहते, इस बात का थोड़ा मलाल तो होता है. लेकिन वो हमेशा हमारे परिवार के लोगों के दिलों में रहते हैं. उनकी भी कुछ मजबूरियां रही होंगी. हो सकता है कुछ गलती हम सबकी रही हो थोड़ी बहुत.
आपको बता दें कि आजादी के बाद से 1972 तक बड़े दादाजी स्वर्गीय श्री केदारनाथ पाठक हमारे गांव दुधनारा के प्रधान थे. बड़े बाबा के दिवंगत होने के बाद बिचले बाबा, जिनका नाम श्रीराम आधार पाठक है, लगातार 18 साल तक यानी 1990 तक प्रधान रहे. बिचले बाबा को गांव वाले बहुत मानते हैं.
बिचले बाबा आज के प्रधानों पर जब गुस्सा होते हैं तो उन्हें बताते हैं कि प्राइमरी स्कूल बनाते समय कांग्रेस ने सिर्फ 18 बोरी बालू दिया था. उतने में इतना भव्य निर्माण करवाना संभव नहीं था, तो मैंने घर पर ईंटें पथवाकर और अपने जेब से पैसे खर्च कर और चंदा बंटोरकर काम को पूरा करवाया और तुम लोगों को इतना फायदा मिलने के बाद कोई काम नहीं सूझता. गांव में लड़कियों की शिक्षा के लिए बाबा ने जो प्रयास किए, उसकी सराहना की जानी चाहिए. भारत तो आजाद हो गया था लेकिन उसके बाद भी लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए जूझना पड़ता था. ग्रामीणांचलों में लड़के तो शहर जाकर पढ़ाई कर लेते थे, लेकिन लड़कियां निरक्षर ही रह जाती थी. बड़े बाबा ने लकड़ी, बांस और बल्ली से कुटिया बनाकर गांव की लड़कियों की शिक्षा के लिए एक मिसाल कायम की. पारिश्रमिक पर टीचर बुलाए और स्कूल चलने लगा. बड़े बाबा ने तकरीबन 2 बिघा खेत छोड़ दिया. गाँव के प्रति ये समर्पण ही उन्हें पूजता है.
क्षेत्र के विधायक और सांसद भी बाबा से आकर मिलते थे. बिचले बाबा उन्हें पूरे गांव के लोगों के सामने खरी खोटी सुना देते थे.
बिचले बाबा गाँव में एक आदर्श व्यक्तित्व है. उनकी बातों को लोग स्वेच्छा से स्वीकारते हैं. इर्द गिर्द के गांवों और रिश्तेदारियों में भी वे प्रासंगिक रहते हैं.
उनके पूरे दिन का शेड्यूल होता है. अब पान नहीं खाते. मैं भी बाबा के लिए पान का बीड़ा बनाया हूं. पान का एक बाॅक्स होता था, जिसमें पान, कत्था, चूना, सोपारी और एक सरौता होता है. बिचले बाबा को कचहरी जाना होता था. तो सुबह उठते थे. बगीचे वाले खेत का निरीक्षण कर के जब घर आते तो कई सवाल वो दुलारी बुआ से पूछते. कोई काम अगर नहीं हुआ होता तो लापरवाह व्यक्ति उनके सामने जाने से डरता. पहले गुड मीठा खाकर पानी पीते, ठंडी का समय होता तो अलाव सेंकते और चाय पीते. आम के मौसम में बगीचे से जो आम लाते, उसे खाने बैठ जाते. बगीचा जाने के लिए वो अक्सर स्लीपर या बारिश वाले प्लास्टिक के जूते का इस्तेमाल करते थे. जब घर पर कोई ना होता तो वहां से आने के बाद पशुओं के लिए लाए गए घास में से मिट्टी अलग करते(बांस की एक लकड़ी से पीटते). फिर नहाने चले जाते थे. नहाकर सूर्य भगवान को जल देते और पानी से भरी बाल्टी लेकर आते और बैठक में रख देते. कोई इस पर ध्यान दिए रहता कि बिचले बाबा नहाकर वापस आ गए या नहीं.
बिचले बाबा खाने से पहले खडाऊं पहनते और उनके लिए पहले से ही पीढ़े का इंतज़ाम हो गया होता था. जब तक वो खाना खा नहीं लेते थे, एक लोग वहां मौजूद जरूर रहते थे. बाबा का एक बैग होता था, जिसमें नक्शे, मुहर और कागज़ात रखे होते थे. उसे लेकर ही बिचले बाबा शहर जाते थे. वहां से लौटकर आते तो शाम हो गई होती. शाम को दाना खाते और बेल के सीज़न में बेल का रस पीते थे.
उनकी ये दिनचर्या अब पिछले जैसी नहीं रही. वे काफी अस्वस्थ रहते हैं.
बिचले बाबा चीज़ों को थोड़ा उल्टा बोलते थे. अगर सामने वाला नया होता तो समझ नहीं पाता. एक बार सिल्लीगुडी की बुआ के लड़के सूरज भैया गांव आए हुए थे. खेत में जुताई का काम चल रहा था. बैलों से. खेत में मनकू हरवाह को गुड का शर्बत और पानी लेकर पहुंचना था. देरी हो गई थी. मै और सूरज भैया खेत में पहुंचे ही थे, बाबा ने कहा- ‘का हो बड़ा जल्दी आ गई ला लोगन’. सूरज भैया को लगा कि उनके नाना गुस्सा नहीं हैं. तो उन्होंने कहा, हां नाना. वे और बिफर गए और हम लोगों को डांटने लगे. रास्ते में आते वक़्त भैया ने पूछा, तो मैंने बताया कि हम जल्दी नहीं, देरी से ही पहुंचे थे, वो गुस्से में ऐसे ही बोलते हैं.
बड़े बाबा कलकत्ता रहते थे और छोटे बाबा मुंबई. घर पर रहते थे बिचले बाबा. खेती, नताई-रिश्तेदारी और परिवार के सभी सदस्यों के प्रति बिचले बाबा का दायित्व एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा होगा. लेकिन उन्होंने कभी भी घर में किसी को निराश नहीं किया. उनके प्रति भी उनकी बहनें, बेटे और बेटियां या पोते, पोती या परिवार का कोई सदस्य समय से पहले ही बड़ों सरीका दायित्व निभाने लगा था.
बड़की माई(दादीजी) के तो वे लक्ष्मण रहे ही. बिचले बाबा बताते हैं कि 13 साल के बड़े बाबा थे और 9 साल के वे; जब उनके पिताजी दुनिया छोड़कर चले गये. उसके बाद उन्होंने बड़ा संघर्ष से भरा जीवन बिताया. खेती ही व्यवसाय थी. बाबा पहलवानी भी करते थे. अपने समय के अच्छे अखाड़ेबाज थे बिचले बाबा. बिचले बाबा बताते हैं कि उनमें और भईया यानी बड़े बाबा के बीच अच्छी पैठ थी. बड़े बाबा का कहना करना उनके लिए किसी धर्म से कम नहीं था. मेरी नजर में ऐसे भाई अब नहीं होते होंगे. जो बड़े भाई के आंखों के सपनों को अपने जीवन की प्राथमिकता बना ले.
स्कूल से पढ़कर आने के बाद हम लोग भी अपने सामर्थ्य के अनुसार इस महामानव के साथ उन सपनों को थोड़ा बहुत जी लेते थे, उनके संग बैठकर. उनका थोड़ा दुलार जो हमें मिला, वो आगे भी मिलता रहेगा तो बड़े कृतज्ञ महसूस करेंगे. काश! परिवार, संबंध और गांव जंवार के प्रति ऐसा समर्पण हम भी रख पाते.
#ओजस