आज मर्यादाएं अपने शिखर पर थी, उनका टस से मस ना होना, मन को मसलने लगा था. स्वभाव, यहीं पर बंध जाता है कि रति में मग्न होना दायित्व है या फिर मर्यादाएं पालना. शायद, इसका जवाब था भी और ढेर सारा बनाया भी जा सकता था. लेकिन मर्यादाएं बनाई जाने लगेंगी तो तुरंत उनका नाटकीय वसन झलकने लगेगा. जरूरी ये होगा कि रति को बनते देख सकने और मर्यादाओं को पालने का काम इन दोनों से बेअसर होते हुए किया जाए.
रुहानियत को कलंकित होने से मर्यादाएं ही बचा सकती हैं. फिर रति के लावण्यता के उत्कर्ष का क्या होगा. ये तो आतुरता की परिपाटी पर चलने वाली पथगामिनी है. मर्यादाएं यहां निष्क्रीय भी हो सकती हैं. रति के प्रस्तावों को मर्यादाएं खारिज कर देंगी तो भारतीय विद्वान वात्स्यायन के सारे सूत्र जमीदोंज मान लिए जाएंगे. मर्यादाओं को बिना लांघे किसी कि प्रतिष्ठा बचाने का सवाल किसी जोखिम से कम नहीं है और रति जहां रूठी तो उसके एवज में सृष्टि के रुक जाने की आशंकाएं उद्घोषित हो जाएंगी.
फिर भी; बचाना तो पड़ेगा ही मर्यादाओं के साथ रति के उत्कर्ष और वात्स्यायन की प्रतिष्ठा को; एक वक्त में तीन नावों की सवारी करके. ऐसा कोई रणधीर तब कर सकता है, जब समाधिस्थ हो जाए तीनों के प्रेम लय में.
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