आलोचना के लिए ये महत्वपूर्ण है कि जो सामान्य लोगों को दिखाई ना दे, उसे बताने का काम विद्वान आलोचक करें. सूर के काव्य को भागवत का अनुवाद कहना पूरी तरह से अनुचित है.
सूरदास ब्रज के प्रवर्तक कवि हैं. अगर वे श्रीमद्भागवत महापुराण के आधार पर सूरसागर लिखे होते तो अगली पीढ़ी को वो प्रेरकता नहीं मिलती, जिससे कि वे अपना संपूर्ण जीवन कृष्णार्पण कर पाते.
जहां तक श्रीमद्भागवत की बात है, तो कृष्ण के बारे में संस्कृत साहित्य में भागवत की तुलना किसी और से ना हुई और ना ही भविष्य में होने की कोई संभावना ही है. हिंदी साहित्य में कृष्ण भक्ति का आंदोलन जैसा सूर ने चलाया वो काबिले तारीफ है.
यहां मै पूरे यकीन के साथ कहना चाहता हूं कि सूरसागर हिंदी का भागवत है. जिन आलोचकों ने सूरसागर को भागवत का अनुवाद कहने का दुस्साहस किया, वो बेचारे ना तो वेदव्यास को ही ठीक तरीके से जानते हैं और ना ही सूरदास को ही समझ पाए.
आलोचकों जब आप सूरसागर नहाने गए तो क्या उसमें कहीं वेदव्यास मिल गए जिन्होंने आप लोगों से कहा कि ये सूर का नहीं मेरा संगम है.
अनुवाद और छायानुवाद का मिलना अलग बात होती है. यहां सबसे महत्वपूर्ण ये समझना है कि कोई बिषयवस्तु, काव्यवस्तु कैसे बनती है. क्या बिषयवस्तु में कवि के अनुभूतियों को मिलाए बगैर काव्यवस्तु का पुल ढाला जा सकता है. काव्य आलोचना के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है, फिर भी अनर्गल बातें बर्दाश्त होती. मै किसी आलोचक की विद्वता पर सवाल उठाने की योग्यता नहीं रखता, लेकिन अपनी आत्मानुभूति का गला घोटना मुझे अनुचित लग रहा था, इसलिए छोटे मुंह बड़ी बात कहने की धृष्टता की है.
#Soordas #ओजस