(ये कोई कविता नहीं है, इसे तो गद्य में संस्मरण की तरह लिखना चाहिए था लेकिन कविता का जीवनकाल लेख की अपेक्षा ज्यादा होता है.
भामां से मेरे रिश्ते चिरकालीन लगते हैं और ऐसा लगता है कि अगले जन्म में भी ये साथ बदस्तूर बना रहेगा.
उनको विशेष धन्यवाद देना चाहता हूं, मेरे जीवन में प्रेरणाओं का शिलान्यास करने के लिए)
घर में जब बड़ी भाभी आई,
आज से ८ साल पहले.
आज इतने अतीत में कैसे जाना हुआ,
कोई साफ वजह नहीं है.
बस सुबह से ही उनका चेहरा,
आंखों के सामने नाचने लगा था.
गांव में शान बघारते थें कि हमारी भाभी,
ये जानती हैं,
वो जानती हैं;
हमारी भामां हमें बहुत मानती है.
मुझे लिखने की प्रेरणा भी उन्हीं की देन है,
भाभी डायरी लिखती थीं.
सहजता का जो बेशकीमती चस्पा उसमें देखा मैंने,
बड़ा आत्मविश्वास हुआ मुझे खुद पर.
भाभी का दुलार, जो भी अच्छा बुरा;
दादी और अम्मा के बाद.
मेरे लिए तो प्राथमिक है.
बहुत ज्यादा साथ नहीं रहा हूँ,
और ना ही शत फीसदी प्यार का कर सकता हूँ दावा.
लेकिन जब बहुत दुखी होता हूं,
तो चित्त भित्तियों में बदस्तूर कुछ चेहरे सट जाते हैं.
सबसे पहले दादी की याद आती है,
मेरे पास आज भी उनसे बेशकीमती संबंध नहीं है कोई.
दादी को ईश्वर ने २००९ में,
एक प्रायोजित ढंग से छीन लिया.
मैं इसके लिए ईश्वर से ताउम्र,
खफा रहूंगा.
दूसरी याद अम्मा की आती है,
सबसे ज़रूरी अखरता है उनका मुझ पर अंतरिम बदगुमान.
ऐसा नहीं कि भाभी की याद नहीं आती,
लेकिन आज पहली बार इस क्रम में उनकी स्मृतियां स्वर्गिक है.
मैं प्यार में समझौते नहीं कर पाता,
झगड़े भी हुए हैं मेरे उनके बीच;
लेकिन कभी इस कदर नहीं की.
उस अप्रत्यास्थ डोर को ही खींच लिया गया हो.
भाभियों में भी होती है ममता की मूरत,
एक बार पापा ने डांट दिया.
गुस्से में छत पर जाकर बैठ गया,
जिद्द थी कि इनका खाना पीना नहीं खाऊंगा.
अब कुछ कमाऊंगा तो ही खाऊंगा!
सर्दियों के दिन थे अम्मा नहीं,
इस बार भाभी मेरे लिए ले आई थीं खाना.
आंखें नम हो गई थी,
मैं इस करुणा का प्रतिकार कैसे कर दूं.
अब पता नहीं क्यों डरता हूं,
दूर होते हुए.
सहजता के उस प्राचीर रिश्तों से.
#ओजस