मैं फोन पर पिताजी से बहुत सारी बातें नहीं कह पाता, जो मिलकर कर पाता हूं. आज सुबह अम्मा ने बताया कि उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. तभी से मन कहीं लग नहीं रहा है. बड़ी दीया से बात करते हुए भी गला भर आया, फिर मैंने तुरंत फोन काट दिया. उनका फिर से फोन आया और उन्होंने कहा कि परेशान ना हो. मैं देखती हूं क्या हुआ है. लगभग यही बातें बड़े भैया से भी हुई.
पापा के साथ कुछ अजीब तरह की बॉन्डिंग है. जिसको लिख-कह पाना मुमकिन नहीं. अम्मा में तो जान बसी रहती है लेकिन पापा से दूर रहना भी एक पल को गंवारा नहीं लगता और क्यों ना हो. मैंने उनकी आंखों को बहुत गौर से पढ़ा है. जब से होश संभाला, डांट के सिवाय उनसे कुछ खास मिला नहीं. हर बात पर चिल्लाते; तुमने ये नहीं किया, बोलने के बाद भी कोई काम नहीं करते. जिंदगी में कोई काम पूरा करोगे. इन सभी सवालों का जवाब मैं आपको आज देने जा रहा हूं. ध्यान से सुन लीजिए. इस आशा के साथ कि जो आप समझते हैं ना, उससे भी गया गुजरा हूं मै. आप इसलिए मुझे डांटते और बोलते रहते क्योंकि आपको मेरी भविष्य की चिंताएं थी. फिक्र थी, परवाह करते थे आप मेरा. कोई अगर इस प्रेम की आदर्श स्थिति को अलग तरह से देखता और समझता है तो वो दर्शन(Philosophy) से कोसों दूर किसी कूपमंडूक से कम नहीं और उसे आउट आॅफ बॉक्स थिंकिंग की आदत डाल लेने की ज़रूरत है.
31 मई 2004 को बड़ी दीया की शादी हुई. पापा बहुत सारे फैसले घर के बेटों नहीं, बेटियों यानी बुआ या दीया की सहमतियों के बाद लिया करते. बुआ लोग तो गर्मियों की छुट्टी में ही आ पाती लेकिन दीया तो जैसे पापा की सलाहकार बन गई थी. बेटा, कहकर उन्हीं को बुलाया जाता. हम सभी भाईयों को तो मूर्ख के सिवाय कुछ कहते ही नहीं. कभी-कभी तो पापा अपने बच्चों में बड़े भैया, बड़ी दीया और गोल्डन भैया को लेते और मुझे, अनुपम भाई, आकांक्षा दी को अम्मा के हिस्से का बता देते. पापा मुझे इन बातों का कभी बुरा नहीं लगा. लेकिन सबसे बुरा तब लगा जब आपने एक साल तक मुझे डांटना बंद कर दिया था.
पूरी बात ये थी कि मैंने बीएससी पार्ट वन में घर पर ही एक एकेडमी चलाना शुरू किया था. तीन-चार दोस्तों के साथ गांव के उन बच्चों को कोचिंग पढ़ाना शुरू किया जो आर्थिक तौर पर ज्यादा मजबूत नहीं थे. इस चक्कर में मुझे 4-5 घंटे कोचिंग में देने पड़ते. मेरे उस छोटे से प्रयास में 90 बच्चों को कोचिंग की सुविधा मिलने लगी थी. पापा को लगा ये कोचिंग के चक्कर में अपनी पढाई बेकार ना कर ले, फिर क्या था; पापा एक दिन गुस्सा हो गए और साफ तौर से कहा कि तुम्हें जैसे रहना है रहो, जो करना है करो. मुझसे कोई मतलब नहीं.
पत्रिका जलवायु में पहली दफा जब मेरी कविता पब्लिश हुई. जो कोपेनहेगन में हुए जलवायु समिट के बाद लिखी गई थी, तो मैं बहुत ही खुश होकर कविता दिखाने पापा के पास गया; उन्होंने कविता पढ़े बगैर ही ये कह दिया कि बहुत सारे कवि भूखों मर रहे हैं, ये बात मेरे दिमाग में आज भी गूंज रही है और तभी से मैंने निश्चय किया कि जब तक अपनी कविताओं के दम पर दुनियाभर में चर्चित नहीं हो जाता, जी तोड़ मेहनत करूंगा. रात दिन पढूंगा, लिखूंगा और शब्द और मनोभावों का एक ऐसा संगम तैयार करूंगा कि लोग मेरी लेखकीय बारीकियों को पढ़ सुनकर अचरज में पड़ जाये और ईश्वर को ये मालूम है कि मैंने जो भी निश्चय किया है उसकी धूरी को छोड़ना मैंने कभी नहीं सीखा. आगे क्या होगा, नहीं पता. लेकिन मुझे इस बात का बदगुमान है कि मैं लिखने के लिए ही पैदा हुआ हूं.
पापा; ईश्वर से यही कामना करता हूं कि वे आपको जल्दी से ठीक करें.