मानव सभ्यताएं बतलाती हैं कि उस दौर के लोग विकसित चेतना के थे और संस्कृतियों का अस्तित्व ही अनुशासन, नियमों या धर्मों की नींव पर टिका हुआ है. विकास कहीं ना कहीं धर्मों या संस्कृतियों को हाशिए पर रख आगे बढ़ जाना चाहता है. तो वहीं समाज में अलग-अलग समुदाय और जातियां किसी मुल्क की अनेकता की खास वजह होती हैं. इसका फायदा नेताओं के ज़रिए खूब लिया जाता है. वे नफ़रत की राजनीति को अंजाम देने की अपनी कोशिशों को बदस्तूर जारी रखकर सामाजिक सौहार्द को उखाड़ने के मनसूबे को पूरा करते हैं. उनकी राजनीति का आधार ही ध्रुवीकरण और तुष्टीकरण, अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक, कार्पोरेट से गठजोड़ बनाम छोटे शहरों को अर्थव्यवस्था से दूर रखना और सबसे महत्वपूर्ण कि सहानुभूति की तमाम कलाओं के जरिए भारतीय जनमानस के बीच पहुंचकर उनकी उम्मीदों की अर्थी उठाना.
इस दौर में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला मुहावरा सटीक और अर्थपूर्ण है. वाक्पटु और बातूनी होने में बहुत अंतर होता है. गौर कीजिए आजकल कौन वाक्पटु और तथ्यपूर्ण बोल रहा है और किसके जरिए इस आदर्श व्यवस्था को बार बार खारिज किया जा रहा है. अगर आप बातूनी नेता को पकड़ पाते हैं तो समझ लीजिए भारतीय चेतना आज भी राजनीतिक भ्रमजाल में नहीं फसती.