दो दिन पहले की बात है. छोटी बुआ का फोन आया. बहुत अच्छा लगा कि वो गांव गई है. सुचेता बुआ ने फोन आकांक्षा दी को पकड़ा दिया. उनके बहुतेरे सवाल ऐसे थें जिनका जवाब मेरे पास नहीं था. मगर मैं फिर भी ये भरोसा दिलाना चाहता हूं कि मैं अपने घर-परिवार के लिए पूरी तरह से समर्पित हूं. हां, हो सकता है कि मेरे कई फैसले परिपक्वता की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाए. लेकिन वे भावुकता में लिए गये बहुत ही सतही फैसले हैं. समाज, रिश्तेदार और स्नेहीजन आपके अच्छे और बुरे दिनों में आपके साथ होते हैं इसलिए जरूरी है कि उनकी बात को गौर से सुना जाये. ये मानते हुए भी अच्छे और बुरे मशविरे सुने जाने चाहिए कि रहीमदास का दोहा निंदक नियरे राखिए प्रयोगों में लाकर अनुसरण कर लिया जाए.
मैं सभी तरह की टिप्पणियों को स्वीकार करता हूं. मुझे पता है कि दुनिया वाले, घर वाले नहीं हुआ करते हैं. मेरी समझ के हिसाब से जो सही लगा वो मैंने किया. लोगों को जो समझना है समझे. क्या रीतियां बदल देनी नहीं चाहिए? क्या ये जरूरी है कि समाज को व्यक्तिगत फैसलों में भी शामिल होने का हक दे दिया जाये? दरअसल, जिस समाज में हम जीते जा रहे हैं, वो बहुत ही संकुचित मानसिकता का है. ऐसी-ऐसी कुप्रथाएं हैं कि मन डावाँडोल हो जाये. ऐसी-ऐसी रस्में निभाई जा रही हैं जिन्हें निभाना अपराध से कम नहीं है. पढ़े लिखे युवा भी बदलाव की उम्मीद नहीं करेंगे तो कौन करेगा? मुझे व्यक्तिगत तौर पर अरेंज मैरिज से नफरत सी हो गई है. अनमेलपन का ऐसा टंगना होता है, जिसे जहां चाहा वहां टांग दिया. और माता-पिता हुक्मरान बन बैठे. बच्चों की खुशियों को सूली पर चढ़ा दिया. मैं जीते जी इसका पुरजोर विरोध करता रहूंगा.
इसी समाज में मैंने देखा है कि दो सगे भाई पिता की संपत्तियों के लिए लड़ते हैं. उनकी सेवा करने तक में कोताही बरतते हैं. आत्मनिर्भर होते ही उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं. माता-पिता की कोई सुध नहीं. लानत है ऐसे सामाजिक अपंगता पर. इसी समाज में मैंने पाया है कि कुछ लोग घर परिवार को लेकर इतने समर्पित होते हैं कि सब कुछ लुटाने का माद्दा रखते हैं और कुछेक उसके निर्माण में बिना किसी योगदान के ही हक की लड़ाई लड़ने आ जाते हैं. धरती के एक हिस्से को पा लेने से ज्यादा बेहतर मुझे लगता है कि दो अप्रतिम भ्रातृ प्रेम को वैमनस्य में ना बदल दिया जाना होता होगा.
हम राम की बातें करते हैं. राम ने भी स्नेह और आज्ञा को ही अपना सब कुछ माना था. धन और संपत्तियों से कोई संतुष्ट नहीं होता, प्यार हमें हर घड़ी संपन्नता से लबरेज करता रहता है. साप्ताहिक छुट्टी में मन हुआ कि ग्वालियर चला जाऊं. लेकिन जब फोन लगाने के लिए बड़े भाई साहब को फोन मिलाया तो हर आधी रिंग पर नंबर बिजी बताने लगा. अगर मैं अपने शिकवे गिले अपने बड़े भाई से साझा करूं तो क्या ये गलत है? और ये कितना सही है कि वो मुझे ब्लैकलिस्ट कर दें. मन कचोटने लगता है और बहुतेरे सवाल खुद से करता है कि क्या मैं स्वाभाविक और सहजता को त्याग दूं. ईश्वर जानता है कि मैं अपने भाइयों से कितना प्यार करता हूँ लेकिन उन्हें कोई हक नहीं कि बदले में वो मुझे नफरतों के पारावार से नवाजें. ये बातें सबसे साझा करने का साफ मतलब है, अपना मजाक बनाना. लेकिन पता नहीं क्यों मैं ‘खुली किताब’ हो जाना चाहता हूं!
#ओजस