(जो कभी मरा नहीं करते!)
सबके भीतर ईश्वर का अंश है, आत्मा रूप में सभी जीव अविनाशी हैं. श्रीमदभगवद्गीता में इसी बात पर कृष्ण और अर्जुन के बीच लंबी और तार्किक चर्चा हुई है. जो इसे गीता संवाद के परिप्रेक्ष्य में समझने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं, उन्हें जीव के अविनाशी होने की संभावना को ऐसे समझ लेना चाहिए जैसे कि जो हमें छोड़कर मीलों दूर चले जाते हैं, उनकी यादें, प्रेरणाएं और जिंदगी जीने का तरीका हमसे दूर कहां हो पाता है? वे हमारे बीच में अपने आदर्श विचारों के तौर पर जिंदा रहते हैं.
केदारनाथ सिंह ने लिखा है कि जाना हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है. निसंदेह उससे भी; खौफ़नाक तो नहीं मुश्किल क्रिया है बिसराना. ऐसे समझ लीजिए ना कि पेड़ों पर पत्ते झड़ जाते हैं, फिर उगते भी हैं. पत्तों का झड़ना और उगना ही जन्म मृत्यु है. और वृक्ष को मिलने वाला खाद-पानी और सूर्य का प्रकाश शाश्वत तौर पर आत्मा रूप में जीवंत विचार, प्रेरणाएं और जीवन शैली है. जो कभी मरा नहीं करते.
पेड़ों की जड़ें विराट ईश्वर सत्ता है. शाखाएँ जीव प्रजातियां और पत्ते जीव. गौतम बुद्ध पता नहीं क्या ढूंढने निकले थे. मुझे तो लगता है कि जीवन से ज्यादा निश्चित और सत्य तो मृत्यु ही है. मृत्यु प्रावस्थाबद्ध परिवर्तन की प्रक्रिया है. जिसका संपादन तमाम धर्मों में अलग तरीके से समझाया गया है.
जीवन में जो रह जाएगा वो आपकी करुणा, प्रेम और विचार ही हैं. इसलिए इसकी नींव का निर्माण सतही तरीके से करने की जरूरत है. परोपकार और परहित मानवीय मूल्यों को परिष्कृत करते हैं. इसका निर्वहन करने में आपको कुछ कठिनाइयों का सामना जरूर करना पड़ सकता है लेकिन अंततोगत्वा ये आपके लिए फायदेमंद ही साबित होने वाला है. कुछ विकारों जैसे क्रोध, आलस और लालसाओं को छोड़ते ही आपके भीतर ईश्वर अंश के रुप में परोपकार और प्रेम पल्लवित होगा. आप अमर हो जाएंगे. कुछ मत कहिए बस निःस्वार्थ भाव से अपनी अच्छाई और दूसरों की भलाई करना मत छोड़िएगा. आपके दुनिया के छोड़ते वक्त जो मजमा आपके पीछे होगा वो गौरवान्वित करने वाला होगा. एवमस्तु
#ओजस