इश्क़ और नफ़रत आदमी का स्वभाव ही तो होता है. वो किसको प्यार करे और किसे नहीं करे. ये तो उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर निर्भर है. मैंने पाया है कि जिसे हम प्यार कर रहे होते हैं, उसकी छोटी-मोटी गलतियां भी हमें भाने लगती हैं. ठीक इसी तरह जिसे नफ़रत कर रहे होते हैं, उसकी अच्छी चीजें भी हमें पसंद नहीं आती. ये परिष्कार का विषय है. इसमें सुधार किया जाना चाहिए. क्या कोई किसी से इश्क़ ही करता रह सकता है. जब वो प्यार से उकताएगा तो झगड़े वगड़े तो करेगा ही. मनमुटाव भी लाजमी है और ऐसा भी हो सकता है कि कुछ दिनों के लिए बातचीत भी बंद हो जाये. लेकिन बातचीत बंद कब तक रह सकता है. इश्कबाज़ को मोहब्बत बतौर सांस की तरह चाहिए होती है. वो सब कुछ हाशिए पर रखेगा और बातचीत का प्रस्ताव जरूर रखेगा. तो क्यों नफ़रत को भी इसी तरह का खुशनुमा अंजाम दिया जाये. जैसे इश्क़ में मनमुटाव संभावित है ठीक उसी तरह नफ़रत में बातचीत की कोशिशें क्यों नहीं की जानी चाहिए?
चित्त भित्तियों पर सिर्फ दो ही लोग चिपकते हैं. एक तो वो जिनसे आप प्यार कर रहे होते हैं और दूजे वो जिनसे नफ़रत करके मनमुटाव का शिखर उठा दिया गया है.
संवाद दुनिया की जरूरत है. संवाद की शक्ति नेटवर्किंग को नया युग देने का कुव्वत रखता है. सौहार्द का मार्ग प्रशस्त करने में हर कालखंड में संवाद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है. सोचिए अगर संवाद नहीं होता तो लोग एक दूसरे से इश्क़ और नफ़रत कैसे करते. इश्क़ और नफ़रत जिस तरह जरूरी हैं. ठीक उतना ही जरूरी है संवाद कुशलता. मुझे संवाद कुशल ना होने का खामियाजा इतना भुगतना पड़ा है कि मैंने डायरियां लिखनी शुरु कर दी. सबको बताने लगा कि मैं क्या महसूसता हूं. इस परिवेश में मुझे जो दिखा वो ज्ञान का माध्यम बना. यही मेरी मौलिकता का आधार है. इसके ना होने पर मैं शून्य हो जाऊंगा.
#ओजस