पिताजी जब मुझ पर गुस्सा होते तो कहते कि तुम अपनी जिंदगी में कोई तो काम पूरा किया करो, आज लगा कि उनका कहना गलत नहीं है. लेकिन अब ठान लिया है कि अब कोई तो काम करूंगा जिसको अंजाम तक पहुंचा पाऊं. बचपन में बहुत झगड़ालू था, लेकिन दिल का बहुत ही साफ. मेरे साथ जाने वाले दोस्त जिस दिन मुझसे आगे निकल आते तो मैं पूरे रास्ते रोता हुआ आता. अम्मा ये देखकर बस हंसती और कहती कि तो क्या हुआ अकेले आना पड़ा तो. अकेले चलना मेरे लिए बहुत दुरूह है. ये मेरी कमजोरी है या समरसता, नहीं पता. दादी(बड़की माई) मेरी जान थी, स्कूल से आकर उनका खिलखिलाता चेहरा देखकर लगता कि वहां के जंजाल से बचकर सुकून के पुरवाई में आ गया हूं. 2009 में उन्होंने भी साथ छोड़ दिया. उसके बाद तो दुनिया से मुझे कोफ्त होने लगी.
बुआ लोग गर्मी की छुट्टियों में आती. तो घर पूरा भर सा जाता था और जब जाती तो लगता कि कोई उजाड़ सा हो गया है. मानो घर ने चहकना बंद सा दिया हो और घर में घोर सन्नाटा छा जाता. बड़ी दीया ने बहुत डांटा है लेकिन मैं जिंदगी भर उनके उन स्नेहों का कर्जदार रहूंगा, जो मेरे लिए अनमोल है और हमेशा रहेगा. स्कूल से आकर जब वो अपने हाथों से खाना खिलाती तो ऐसा लगता जैसे वो चावल दाल नहीं बल्कि छप्पन भोग है. खाना छोड़कर बैठ जाना मेरी सामान्य आदत हुआ करती थी. जब कभी नाराज होकर खाना बिना खाए चला जाता तो पापा गुस्से में घर के सभी सदस्यों से मुझे खाना देने के लिए मना कर देते. लेकिन अम्मा खाना लेकर पहुंचती और कहती कि मेरी कसम है खाना खा ले बाबू.
चाची और बड़ी भाभी, मेरे लिए अम्मा से बिल्कुल कम नहीं. छोटी भाभी भी बहुत मानती है. जब भी लछिरामपुर जाता हूँ, चाची क्या कुछ नहीं करती हमारे लिए. भामां भी अम्मा की तरह ही लाड दुलार करती हैं. सबसे कुटिल मैं ही हूं. जो इस बेशकीमती रिश्तों का जरा सा भी खयाल नहीं रख पाता.
निधि पांडेय ने भी बहुत प्यार और सम्मान दिया. लेकिन पापा कहते हैं ना कि मैं कोई काम पूरा नहीं करता, अधूरा ही छोड़ देता हूं.
#ओजस