((अदाएं तो दुल्हनों को ही आती हैं, भगवान झूठ ना बुलवाये; जो दुल्हन मुंह दिखाई के समय जितनी शालीन दिखाई दी. वही, साल भर बाद सबसे आक्रामक देखी गई. नाम लेकर गांव भर की भौजाइयों से झगड़ा नहीं मोल लेना चाहता.))
बचपन में जब किसी के घर दुल्हन उतरती थी तो बुआ या दीदी के साथ दुबक के दुल्हन देखने पहुंच जाता था. हाईस्कूल में बड़ी दीया ने एक बार डांट लगा दी. कहा कि अब तुम छोटे बच्चे नहीं हो जो हमारे साथ दुल्हन देखने जाते हो. अब बड़े हो गये हो थोड़ी गंभीरता लाओ अपने भीतर. ऐसा नहीं कि उसके बाद मैंने घुंघट में कोई नई नवेली दुल्हन नहीं देखी लेकिन हां, उस तरह से नहीं देखा जैसे पूर्वांचल में मुंह दिखाई की रस्म होती है. बड़ा मजेदार अनुभव रहा है.
हां, तो गांव जवार में महीने दो महीने मुंह दिखाई की रस्म चलती ही रहती हैं. घर और रिश्तेदार ही नहीं देखते. पूरा टोला आता है नई दुल्हन देखने.
कुछेक महिलाएं तो जहां तहां दुल्हन के गुण और अवगुण की कथाएं सुनाते हुए अपने घर पहुंचती हैं. सुंदरता का बखान करती हैं. कुरुपता के रुपक भी पेश करती हैं और सबको बता देना चाहती हैं कि उनके तो करम फूटे थें, जिस दिन उनकी बहू घर उतरी थी. पूर्वांचल में दुल्हन घर आती नहीं उतरती है, और मजे कि बात ये है कि बिना किसी विमान के.
खैर; मैंने जो कुछ अनुभव किया है, उसे बिना संकोच के शब्द देता चला जाता हूं. कुछ सास तो नई दुल्हन के आने पर मुंह दिखाई के अतिरेक में नजर ना लग जाने से ही डरती रहती हैं और नजर उतारने की तमाम उपायों का भी पूरा प्रबंध कर देती हैं. अब बताइए बहुए इसके बाद भी अपनी सास को मां ना समझे तो गलती किसकी. अपवाद होते हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए.
हम धारणाएं बना लेते हैं, तभी गलत करते हैं. क्योंकि सारी सास बुरी नहीं होती और सभी की सभी बहुएं भी अच्छी नहीं होती. खैर, इस पचड़े में पड़ेंगे तो भटक जाएंगे. चलते हैं गांव में कुछ नई नवेली बहुओं के आगमन के किस्से सुनते हैं.
दुल्हन को पहले से निर्देश दे दिया जाता है कि किससे बात करनी है और किससे नहीं. दुल्हन के हिस्से में यही एक महीने सबसे बेशकीमती और यादगार होते होंगे. क्योंकि इसके बाद उन्हें जिंदगी भर सिर्फ और सिर्फ दायित्व निभाने ही होते हैं.
मेरी मां भी जब दुल्हन बन के आई होगी तो उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा. फिर तो सुख और अम्मा का जैसे नाता ही टूट गया.
पिताश्री बहुत धनाड्य हैं और रहेंगे लेकिन मां के हिस्से तकलीफ ही तकलीफ विधि ने लिख दिया. मां इतनी ज्यादा भोली हैं कि सब के सब आसानी से उनका भरपूर इस्तेमाल करके दोष भी मढ़ देते हैं और उनके आंसू ना तो पिताश्री देखते हैं ना ही उनके बेटे, बेटियाँ. मैं जानता हूँ अपनी मां को. वो कभी किसी का नुकसान नहीं चाहती. लोग इतने हद तक गिरे हुए होते हैं कि ऐसी देवी पर भी सवाल खड़ा करते हैं और उनके सगे बेटे इसका समर्थन करते हैं.
65 साल की उम्र में हमने अपनी मां को अकेले मरने के लिए छोड़ दिया है और अपनी-अपनी दुनिया में मदमस्त हैं. हमने अपना जीवन बेहद सरल बना लिया. लेकिन उम्र के इस पड़ाव में उनकी ख्वाहिशों का गला सा घोट दिया. बड़ी भाभी को मैंने भामां बोला, जितना हो सका उनको प्यार दिया. छोटी भाभी को भी जितना समझा सकता था. उतना मनाया. लेकिन मेरे हाथ विवशता ही लगी.
अम्मा को भी बोला कि छोड़ दीजिए किसी को कुछ बताना. अगर सबको आपकी बातें बुरी लगती हैं. दरअसल, जिस मां और पिताश्री के साथ आज कोई रहना नहीं चाहता. वे देवतुल्य हैं. उनके खिलाफ गलत अवधारणाएं बनाना और अपने दायित्वों से भागना आधुनिकता की आदत सी हो गई है. तभी तो ना जाने कितने वृद्धाश्रम आज वजूद में हैं. देखिएगा, यही विरूपित सभ्यता हमसे सब कुछ छीन लेगी. खैर God is my justice,!
#Amma