ना तो एनआरसी का सिद्धांत बुरा है और ना ही नोटबंदी का था. समस्या इस बात की है कि इसे लागू करने का तरीका और जल्दबाज़ी बहुत ही खतरनाक रहा. सही तरीका ये होता कि पहले लोगों को इसका मकसद समझाया जाता.
जितनी जल्दबाज़ी मौजूदा सरकार ने एनआरसी से अनभिज्ञ लोगों को डराने में किया, उतनी जल्दबाज़ी विजय माल्या, ललित मोदी, मेहुल चोकसी को रोकने में लगाते तो आज अर्थव्यवस्था संभवतः ऐसी नहीं होती. एनआरसी बिल्कुल लागू किया जाना चाहिए लेकिन उसका एक नैतिक तरीका ईजाद करने के बाद. चेकिंग इस आधार पर हो कि जेन्यून लोगों को अपमान सहना ना पड़े.
ये गलत रवैया है कि भारत का नागरिकशास्त्र इतना समृद्ध होने के बाद भी प्रशासन को विधियों के अंतर्गत जो शक्तियां दी गई हैं वो नागरिक की शक्तियों और अधिकारों का ध्यान नहीं रखती. इसी बात का फायदा विरोधी भरपूर उठाते हैं. आदर्श व्यवस्था तो ये होती कि घुसपैठ का मौका ही नहीं दिया जाता. ये भी एक तरह कि अनियमितता है. जिस पर काम करने की जरूरत है.
नागरिकता कानून का जो एक अपवाद समझ आ रहा है. वो ये है कि आखिर किस आधार पर तय होगा कि जिसे भारत की नागरिकता प्रताड़ित समझ के दी जा रही है वो वाकई में प्रताड़ना का शिकार हुआ है. अगर यहां चूक होती है तो नागरिकता कानून के जरिए भी आश्रयित घुसपैठ का द्वार खुलने लगेगा.
जैसे नोटबंदी में हुआ. पहले तो आतंकवाद खत्म करने की बात थी. फिर हजारों करोड़ नई करेंसी के जाली नोट छापेमारी में पकड़े गये. घुसपैठियों को पकड़ने का जो तरीका असम में ईजाद हुआ. वो बिल्कुल भी सही नहीं है. क्योंकि अगर वो सही होता तो उसमें भूतपूर्व सैनिकों का नाम नहीं आता है.
किसी सरकार ही नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री को भी ऐसी हिमाकत करने की इजाजत नहीं देनी चाहिए जो इस देश के जवान से राष्ट्रभक्ति का सर्टिफिकेट मांगे. एक भी घुसपैठ सीधे तौर पर भारत की सुरक्षा विधियों पर सवाल उठाता है. तो इसलिए किसी भी सरकार को ऐसे पेंचीदा मसलों पर पूरी रणनीति के साथ प्रावधान बनाना और लागू करना चाहिए. जो जन गण मन के सिद्धांत को धराशायी ना करे. धन्यवाद!