शहरों के चकाचौंध में लोग उन स्मृतियों को भूलते जा रहे हैं. जिन्हें पीछे मुड़कर देखने से भी मन कांप उठता है. पाई-पाई जोड़कर हमारे अभिभावकों ने हमें शिक्षा दिलाई. आज उस शिक्षा के मायने क्या रह गये हैं? उस शिक्षा का कत्तई ये मतलब नहीं था कि आप समाज में नफ़रत पैदा करें! उस शिक्षा का ये भी मतलब नहीं था कि आप सच्चा होने का दावा करते हुए सरकारों के इशारे पर झूठ बोलें! उस शिक्षा का ये मतलब नहीं था कि आप गरीबों की दुर्दशा को अलग नजरिया देकर दिखाएँ! उस पढ़ाई का मतलब है कि अपनी जमीर ना बेचें, अपने स्वाभिमान को किसी भी कीमत पर बचा कर रखें!
सबकी परिस्थितियां और संघर्ष एक तरह के नहीं होते. किसी को अच्छा नहीं लगता, गरीबी में मर-मर के जीना. निश्चित तौर पर एक वीडियो किसी का ब्रेनवाॅश कर सकता है. ये भी तय है कि ऐसा करना गुनाह है. लेकिन आप इस बात को समझिए कि लाॅकडाउन तोड़ने की कोशिशें उस पहले दिल्ली के आनंद विहार बस टर्मिनल पर भी हुई थीं. बांद्रा के अलावा भी अहमदाबाद और अन्य जगहों पर ऐसे मामले सामने आ चुके हैं. और इसका दोषी गिरफ्तार हो चुका है.
यानी कि लोग बेबस और लाचार हैं. फ्री का दाना कुछ स्वाभिमानी लोगों को एक वक्त भी नहीं सुहाता. महीनों की बात तो बहुत ज्यादा है. बांद्रा रेलवे स्टेशन की भौगोलिक स्थिति ही जामा मस्जिद को छूती है, तो सम्मानित पत्रकार और एंकर इसे मस्जिद और मुसलमान से ना जोड़े. रजत शर्मा और रुबिका लियाकत तो ट्विटर पर पक्षधरता की सारी सीमाएं लांघ गये. ये सही है कि तबलीगी जमात ने खतरा बढ़ाया और वे घोर अपराधी हैं लेकिन बहुत मुसलमान डॉक्टर, पुलिसकर्मी और पत्रकार भी हैं जो अपनी जान दांव पर लगाकर लोगों को बचा रहे हैं तो भगवान के लिए इसे आफत की घड़ी में मिलकर लड़ाई जारी रखने की कोशिश करें. इसे किसी कीमत पर हिंदू मुसलमान का नाम ना दें.