मैं सोच रहा हूं कि अगर जोहन जान ने कैमरे का आविष्कार ना किया होता तो जिन जरूरतमंदों का लोग थोड़ा बहुत ख्याल रख रहे हैं, वे भूखों मर जाते. कोरोना संकट के दौरान ज्यादातर लोग खाने के पैकेट के साथ कैमरा ले जाना नहीं भूलते.
समाज सेवा का ये तरीका नवजागरण काल के मसीहाओं ने नहीं अपनाई. शायद दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट, राजा राममोहन राय और सभी लोकप्रसिद्ध समाजसुधारकों कैमरायुक्त समाजसुधारकों ने पीछे छोड़ दिया है. कोई अपने घर पर पैकेट बांधते हुए फोटो डाल रहा है. तो कोई जरूरतमंदों को खाना खिलाने का वीडियो अपलोड कर रहा है.
ऐसे प्रचारवीरों को नहीं पता है कि ये भूखे-गरीबों का मजाक बना रहे हैं. किसी की मदद करनी है तो चुपचाप कर दीजिए. फिर सवाल रह जाता है कि सोसाइटी को दिखाओगे क्या ? दिखावे और बनावटीपन का चरित्र ही ऐसा है कि ये सहजता और नैतिकता का गला घोंट देती है.

इन दिखावावीरों को नहीं पता होता है कि कब क्या दिखाना चाहिए और क्या छिपाना. कैमरे के आविष्कार ने समाज सेवा का जो नया रूप गढ़ा है, उससे मानवता शर्मसार है और सनातन का बहुत पुराना बोध कृपा या दान चुपचाप करना चाहिए बड़ी आसानी से खारिज किया जा रहा है!