अर्थव्यवस्था दो शब्दों से मिलकर बनी है- अर्थ और व्यवस्था. आजकल सबकी ज़ुबान पर एक ही बात. अर्थव्यवस्था गिर रही है. कुछ आंकड़े इस पर भी आये हैं कि ये कहां और कितनी गिर रही है. इसकी गिरावट को देखकर लगता है कि इसके उत्थान में खूब मेहनत नहीं हुई होगी क्योंकि पापा कहते हैं कि अगर किसी चीज की नींव मजबूत बनाई जाए तो भवन टिकाऊं होता है. लगता है हमारी अर्थव्यवस्था की नींव में कमजोर पत्थर लगा दिए गये. तभी तो चंद महीनों में लुढ़कने लगी है. वे पत्थर हैं मुनाफाखोरी के. वे कमजोर ईंटें पूंजीपतियों के इशारे पर नाचती व्यवस्था की है. वे कमजोर ईटें सरकारों के उस सांठगांठ की हैं जो पूंजीपतियों से किए जाते हैं. ये मजबूत और स्वावलंबी बनाए जा सकते थे.
व्यवस्था माने इंतजाम. यानी पूरा मतलब हुआ पैसों का इंतजाम. इस इंतजाम में किसान सीधे तौर पर जुड़ते तो ये कभी ना गिरता. लेकिन बिचौलिएं क्या बताएं. सब बिचौलिए हैं किसान को छोड़कर. सरकार से लेकर मुनाफाखोर तक सभी. सब के सब किसानों की उदारता का पूरा फायदा उठा रहे हैं. इस अर्थव्यवस्था में धैर्यशक्ति तब होती जब उसमें धैर्यशील किसानों की सीधे तौर पर सहभागिता होती.
शहरों में कम मेहनत करना है और ज्यादा पैसे बनते हैं गांवों में ज्यादा मेहनत करने पर भी पेट नहीं भरता किसानों का. शायद सरकारों और राजनीति की भूमिका इसी अंतर को पाटने के लिए है. लेकिन सब हवाहवाई ही रहा. क्योंकि ये अंतर अभी तक बरकरार है. जो आजादी से पहले भी था. पहले ईस्ट इंडिया कंपनी थी. अब तो हर गली-शहरों में कंपनियां हैं. स्वदेशी और विदेशी नहीं. सब की सब.

कोई निगरानी नहीं करने वाला कि इनके मुनाफा का स्तर कितना हो सकता है. और ये भी कोई नहीं देखने वाला कि किसान, गरीब, मजलूम किस हद तक प्रताड़ित किया जाना चाहिए. बताइए काॅर्पोरेट को शर्म नहीं आती. ४-४ हजार रुपए में लोगों की लाचारी का फायदा उठाकर काम कराती है. वैसे भी जो सरकार बेरोजगारी के दंश को मिटा नहीं सकती उसे कब फुरसत है कि जनवाद पर इतना वक्त दे.
असल मुद्दे पर आते हैं, उन्हीं किसानों के दिन रात की मेहनत के बाद जो अनाज उगाए जाते हैं. उसका सारा फायदा चंद उद्योगपति अपने हिस्से कर लेता है और वो धूप में जलते रहते हैं. किसान गन्ना उगाता है, उचित मूल्य नहीं मिलता. चीनी महंगी बिकती है. फायदा किसान को नहीं होता जो एक साल की कड़ी मेहनत के बाद गन्ना उगाता है. अधिकांश फायदा चीनी मीलों को होता है, जो कम समय में गन्ने से चीनी बनाते हैं किसान के मुकाबले. किसान चाय की बागानी लगाता है, किसान तिलहन दलहन बोता है, फायदा कारोबारियों को होता है, किसान को उचित मूल्य नहीं मिलता.
निबंधों में हम लिखते थे. भारत एक कृषिप्रधान देश है. है नहीं था. अब पूंजीप्रधान देश हो गया है, जो व्यवसायियों के इशारे पर नाचती है. अर्थव्यवस्था जब गिरने लगी है तो काॅर्पोरेट हाथ खड़े करने लगे हैं और किसान खेतों में मुस्तैद हैं. ऐसे धैर्यवान किसानों को प्रणाम करने का जी करता है. वाकई में कितने धनी होते हैं ये किसान.