मुझे नहीं लगता कि प्रेम और आस्थाएं दो अलग चीजें हैं. जिस किसी में हमारी आस्थाएं सन्निहित होती हैं, उससे हम प्रेम ही तो करते हैं. उसके आदर्श कर्मों को धर्म मानकर पालन करते हैं. हनुमान की आस्था राम में थी. हनुमान राम से अपार प्रेम करते थे. यहां तक हनुमान उनके अंतर्मन की गहराइयों में छिपे भावावेश को समझने के लिए तार्किक संवाद भी करते थे. राम का कहा बजरंगी के लिए धर्म था. ऐसा नहीं है कि राम ही उनके धर्म थे. हनुमान घोर सनातनी थे. लेकिन राम के मार्गदर्शन में आने के बाद वे धार्मिक सुधारों के अन्वेषी बनें. ये हनुमान का प्रेम-धर्म था. मैं इसलिए हनुमान को सनातनी कह रहा हूँ क्योंकि उन्होंने आपतकाल में सभी देवी-देवताओं का सहारा बनने का काम किया है. वे संकटमोचन यूं ही नहीं कहे जाते.
कहने का मतलब ये है कि धर्म से श्रेष्ठ है प्रेम. धर्म घोर सैद्धान्तिक और प्रथाओं-परंपराओं में उलझाने की कोशिश करता है लेकिन आस्था और प्रेम प्रवाहमान हैं. मान लीजिए हमारी आस्था कोरोना से मुक्ति दिलाने के लिए वैक्सीन बनाने में है. जिससे दुनिया में फैली इस महामारी का अंत हो सके. तो हम वैक्सीन में आस्था रखेंगे. उसके निर्माण में सभी यत्न करेंगे जो मुमकिन हो सकता है. ये मानव कल्याण के लिए किसी शोधकर्ता का लगन या प्रेम ही हुआ. लेकिन अगर हम ये मानकर बैठ जाए कि सब कुछ ऊपर वाले की मर्जी से हो रहा है या मस्जिद में मरने से बेहतर कोई और जगह नहीं होगी. तो ये धर्म का अंधापन या हठधर्मिता है.
हनुमान ने हठधर्मिता नहीं अपनाई बल्कि राम से प्रेम किया. आस्था या प्रेम मेरे हिसाब से एक तरह का धार्मिक परिमार्जन ही है जो धर्म के अस्तित्व को खतरे में जाने से रोकता है. मस्तिष्क की ग्रंथियां चलायमान हैं यानी जो कुछ भी हम सोच रहे हैं उसमें परिष्कार की गुंजाइश है. धर्म को इतना दृढवत मत कर लीजिए कि वो उबाऊ बन जाए. लेकिन उसकी प्रथाओं में भी अगर कुछ वैज्ञानिकता है तो समझ लीजिए आपके धर्म में प्रेम घुला हुआ है. धर्म अगर प्रेमारुढ होगा तो सही होगा. लेकिन प्रेम अगर धर्मारूढ हो जाए तो निश्चित तौर पर इसे धर्मांधता ही कहा जाएगा.