((जब आप अतीत लिखने बैठते हैं. तो कितने ईमानदार रह पाते हैं? कुछ चीजें नज़रअंदाज कर रहा हूँ जो मेरे बिषयवस्तु के पैमाने में फिट नहीं बैठ रहा. लेकिन बुलंदशहर की बुलंद आवाज़ को तो बिल्कुल भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. आज बात ज्योत्स्ना गुप्ता की. स्वभाव से जितनी कड़क उतनी ही नरम. मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा हूँ. पहले साइंस और फिर पत्रकारिता ही मेरे विषय रहे हैं. साहित्य लिखने की गुस्ताखी कर रहा हूं. क्योंकि मुझे हेमंत सर के संरक्षण में रहकर ITMI के वो दिन बहुत भाते हैं. और कालिदास से लेकर जाॅन ग्रियर्सन तक ने जो मन को भाये उसे लिखने को कहा है. ))
ज्योत्स्ना समेत बैच के ज्यादातर लोग मुझे पाठक ही बुलाते हैं. फैकल्टी भी. ज्योत्स्ना से पहली मुलाकात क्लास में हुई. “तुम इतने चुप-चुप क्यों रहते हो पाठक साहब?” जवाब अरे ऐसी कोई बात नहीं है, जरूरी चीजें बोलता तो हूं. मुस्कराते हुए उनका दूसरा सवाल आता, कुछ छुपा रहे हो पाठक? फिर मैं भी मुस्कराहट का जवाब मुस्कराते हुए ही देकर निकल जाता.

मुझे सबसे अच्छा लगता था ज्योत्स्ना का बिंदास अंदाज. किसी के लिए कुछ भी दिल में ना रखना, सीधे मुंह पर बोलना. मिसाल के तौर पर – मंडल कमीशन और आरक्षण को लेकर उनका एक प्रजेंटेशन था. ज्योत्स्ना अपने प्रजेंटेशन को समझा ही रही थीं, उतने में निशांत बाबू का कोई सवाल आता है. ज्योत्स्ना भड़क जाती हैं. और फिर क्या जो फिल्मी डाॅयलाग उन्होंने उस समय दिया वो कोई कैसे भूल सकता है “ध्यान से सुन ले निशांत, सवाल बीच में नहीं पूछना है. पहले मुझे समझा लेने दे. फिर सवाल लूंगी. निशांत नहीं मानता है. तू बता ना.. तू बता ना करके वही सवाल फिर से पूछने की कोशिश करता है. मुझे लग रहा था कि ज्योत्स्ना आगे उस बारे में बताने ही वाली थी. तभी तो उनकी क्रोधाग्नि हेमंत सर के सामने ही उठ गई. “निशांत, अगर एक लफ्ज़ भी बोला तो मैं तेरा मुंह तोड़ दूंगी. जी हां, ये हमारी हरफ़नमौला ज्योत्स्ना के गुस्से के बोल हैं. इसीलिए मुझे टाॅपिक का नाम भी बुलंलशहर की दबंग लड़की रखना पड़ा.

खैर, आगे बढ़ते हैं. तो ये रहा ज्योत्स्ना जी का कड़कपन. उनके स्वभाव की नरमी का भी एक वाकया आप लोगों से साझा कर रहा हूं. जहां हम लोगों को बस छोड़ती, वहां से 200 मीटर आगे पीजी है. पीजी पहुंचने से पहले हम सभी बतियाते हुए आते थे. मैं क्या ही बोलता; लेकिन हां सुनता सबको बड़े गौर से था. ज्योत्स्ना की बातों में मैंने कई बार पाया कि जो थोड़ा भी परेशान होता उसकी फ़िक्र करती. और एक चीज़ हेमंत सर की कही सारी बातें ज्योत्स्ना सिर आंखों पर रखती. वैसे भी पूरी फैकल्टी में हम सबके सबसे चहेते तो हेमंत सर ही थे. जिन्हें हम बिना सोचे अपनी पर्सनल प्राब्लम भी साझा कर सकते थे.
ज्योत्स्ना सबको बराबर तवज्जो देती. ऐसा नहीं कि कोई ज्यादा काबिल हो तो उसकी वाहवाही करें और कोई थोड़ा कमजोर तो उससे बात भी ना करें. एक तरह से कह लीजिए घोर समदर्शी. मीडिया मेंटर्स से उनके सवाल भी जरूरी और बेहद सटीक हुआ करते.

ज्योत्स्ना की एक ख़ासियत ये है कि बदलते अनुभावों के दौर में हर रिश्ते की डोरी को थामे रखती. आज कौन इतना बुनियादी होता है. ये बातें शायद उन्हें और भावुक करे लेकिन अपनी माँ को लेकर उनका प्यार जो मैंने उनके तमाम पोस्ट में देखा है. उसे पढ़ने के बाद विधाता से नफ़रत सी होने लगती है. मैं बस इस पर इतना ही कहूंगा कि मां कहीं नहीं जाती. वो आपके मन के भीतर बैठी हैं. महसूस कीजिए वो आपको कैसे छोड़ सकती हैं. वो आपसे दूर रह ही नहीं पाएंगी. मुझे ये लिखने की हिमाकत नहीं करनी चाहिए थी. लेकिन दोस्त की हैसियत से ये गुस्ताखी कर रहा हूँ. ज्योत्स्ना जी आपके कई पोस्ट, जो आपने मां को लेकर शायद भावुक होकर लिखा है! उसे पढ़ने के बाद मेरी लेखनी का दंभ खत्म हो गया. आपको दिल से नमन! वो पोस्ट और तस्वीर दोनों साझा करने का मन हो रहा है !
